वक्त की जरूरत है निजीकरण

मोदी सरकार ने एयर इंडिया का निजीकरण करने का निर्णय लिया है। सार्वजनिक इकाइयों के निजीकरण के विरुद्ध पहला तर्क मुनाफाखोरी का दिया जा रहा है। जैसे ब्रिटिश रेल की लाइनों का निजी कंपनियों द्वारा निजीकरण कर दिया गया। उसमें पाया गया कि रेल सेवा की गुणवत्ता में गिरावट आ गई। रेलगाडिय़ों ने समय पर चलना बंद कर दिया। सुरक्षा पर खर्च में कटौती हुई, परंतु रेल का किराया नहीं घटा। इसी तरह के कई अनुभव दक्षिण अमेरिकी देशों में देखने को मिले। निजी कंपनियों ने पानी, बस आदि सेवाओं के दाम बढ़ा दिए, लेकिन सेवा की गुणवत्ता में ह्रास हुआ, परंतु यह समस्या एकाधिकार वाले क्षेत्रों में उत्पन्न होती है। जैसे पाइप से पानी की आपूर्ति का निजीकरण कर दिया जाए तो उपभोक्ता कंपनी की गिरफ्त में आ जाता है। कंपनी द्वारा पानी का दाम बढ़ा दिया जाए तो उपभोक्ता के पास दूसरा विकल्प नही रह जाता है, लेकिन एयर इंडिया प्रतिस्पर्धा वाले बाजार में सक्रिय है। यदि एयर इंडिया के क्रेता द्वारा हवाई यात्रा का दाम बढ़ाया जाता है तो उपभोक्ता दूसरी प्राइवेट एयरलाइन से यात्रा करेंगे। इसलिए नागर विमानन एवं बैंकिंग जैसे क्षेत्रो में निजीकरण का यह दुष्परिणाम उत्पन्न नहीं होगा।
मुनाफाखोरी को रोकने के लिए ही इंदिरा गांधी ने साठ के दशक में बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था। चूंकि उनके द्वारा आम आदमी को सेवाएं उपलब्ध नहीं कराई जा रही थीं। वे मुख्य रूप से बड़े शहरों में ही शाखाएं खोल रहे थे जहां ज्यादा मुनाफा था। इंदिरा गांधी ने उनका राष्ट्रीयकरण किया जिससे इनके द्वारा आम आदमी को बैकिंग सेवा उपलब्ध हो जाए। ऐसा हुआ भी। 1970 के दशक में बैंकों की पहुंच में भारी विस्तार हुआ, परंतु दूसरी समस्या भी उत्पन्न हो गई। भ्रष्ट बैंक अधिकारियों और जालसाज उद्यमियों की मिलीभगत से सरकारी बैंको ने घटिया लोन दिए जो खटाई में पडत़े गए और देश की संपूर्ण बैंकिंग व्यवस्था आज रसातल में पहुंचती दिख रही है। हम एक गड्ढे से निकले और दूसरी खाई में जा गिरे। इस उद्देश्य को हासिल करने का दूसरा उपाय यह था कि रिजर्व बैंक द्वारा निजी बैंकों के प्रति सख्ती की जाती। उन्हें चिन्हित स्थानों पर शाखाएं खोलने को मजबूर किया जाता और ऐसा न करने पर भारी हर्जाना लगाया जाता जैसे नकद आरक्षित अनुपात आदि नियमों का अनुपालन न करने पर किया जा रहा है। आम आदमी तक बैंकिंग सेवा का न पहुंचना वास्तव में रिजर्व बैंक के नियंत्रण की नाकामी थी। इस बीमारी का सीधा उपचार था कि रिजर्व बैंक के गवर्नर को बर्खास्त कर दिया जाता। रिजर्व बैंक के कर्मचारी ठीक हो जाते तो निजी बैंक भी लाइन पर आ जाते, लेकिन इंदिरा गांधी ने इस सीधे रास्ते को न अपनाकर निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया और अनायास ही उसी बैंकिंग नौकरशाही का विस्तार कर दिया जो कि समस्या की जड़ थी। इंदिरा गांधी के उस निर्णय का खामियाजा हम आज भुगत रहे हैं।
यह सही है कि निजीकरण की अ़ाड में मुनाफाखोरी हो सकती है, परंतु इसका हल सरकारी नियंत्रण है न कि सार्वजनिक उपक्रमों के सफेद हाथी को ढोना। निजीकरण के खिलाफ दूसरा तर्क सार्वजनिक संपत्ति का औने-पौने दाम पर बेचा जाना है। जैसे ब्रिटिश रेल लाइनों को 1.8 अरब पौंड में बेच दिया गया। खरीदारों ने उन्हीं लाइनों को मात्र सात माह बाद 2.7 अरब पौंड में बेच दिया। अर्थ यह हुआ कि सरकार ने बिक्री कम दाम पर कर दी थी। अपने देश में कोल ब्लाक एवं 2-जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में भी इसी प्रकार का घोटाला पाया गया, जिसका सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया। बाद में कोल ब्लाक और स्पेक्ट्रम कई गुना अधिक मूल्य पर बेचा गया। हमारे इस अनुभव से निष्कर्ष निकलता है कि समस्या निजीकरण की मूल नीति में नहीं, बल्कि उसके क्रियान्वयन में है। जैसे सब्जी को तेज आंच पर पकाया जाए और वह जल जाए तो यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि सब्जी को पकाना ही नहीं चाहिए।
निजीकरण के विरुद्ध तीसरा तर्क है कि निजी उद्यमियों की आम आदमी को सेवाएं मुहैया कराने में रुचि नहीं होती। 1960 के दशक में बैंकों के निजीकरण के पीछे यही तर्क दिया गया था, लेकिन दूसरे अनुभव इसके विपरीत बताते हैं। दक्षिण अमेरिकी देश अर्जेटीना ने टेलीफोन, एलपीजी गैस और पानी की सेवाओं का निजीकरण कर दिया। इंटर अमेरिकन बैंक द्वारा कराए गए एक अध्ययन में पाया गया कि निजीकरण के बाद टेलीफोन, गैस और पानी के कनेक्शन की संख्या में भारी वृद्धि हुई थी। इन सेवाओं की गुणवत्ता में भी सुधार हुआ। भारतीय शहरों में बिजली आपूर्ति के निजीकरण के बाद ऐसा ही अनुभव सामने आया है। गरीब और अमीर के हाथ में नोट का रंग नही बदलता। जहां क्रय शक्ति है वहां निजी कंपनियां पहुंचने को उतारू होती हैं। फिर भी यह सही है कि जहां आम आदमी की क्रय शक्ति नहीं होती है वहां सस्ती सरकारी सेवा का महत्व होता है। जैसे गरीब अक्सर सस्ते सरकारी स्कूल में बच्चे को भेजते हैं, मगर गरीब को सब्सिडी वाली इस सेवा का भारी आर्थिक हर्जाना देना होता है। आज सरकारी अध्यापक औसतन 60,000 रुपये का वेतन उठाते है और उनके द्वारा पढ़ाये गए आधे बच्चे फेल होते हैं। जबकि 10,000 का वेतन लेकर प्राइवेट टीचर द्वारा पढ़ाये गए 90 प्रतिशत बच्चे पास होते हैं। सस्ती सेवा के चक्कर में गरीब के बच्चे फेल हो रहे हैं। इस समस्या का हल आम आदमी की क्रय शक्ति में वृद्धि हासिल करना है न कि उसकी सेवा के लिए सार्वजनिक इकाइयों को पालना।
सार्वजनिक इकाइयों के निजीकरण के खिलाफ चौथा तर्क रोजगार का है। यह सही है कि निजी इकाई में रोजगार का हनन होता है। जैसे एयर इंडिया में तीन वर्ष पूर्व प्रति हवाई जहाज 300 कर्मी थे जबकि अंतरराष्ट्रीय मानक लगभग 100 से 150 कर्मचारियों का है। बीते तीन वर्षो में एयर इंडिया ने इस मानक में सुधार किया है। यदि एयर इंडिया का निजीकरण तीन वर्ष पूर्व किया जाता तो निश्चित ही क्रेता द्वारा कर्मियों की संख्या में कटौती की जाती। सच यह है कि मंत्रियों एवं सचिवों के इशारों पर सार्वजनिक इकाइयों में अनावश्यक भर्तियां की जाती हैं जो कि वाणिज्यिक दृष्टि से नुकसानदेह होती हैं। इसलिए निजी क्रेता द्वारा कर्मियों की संख्या में कटौती की जाती है, परंतु यह निजीकरण का केवल सीधा प्रभाव है। कुल रोजगार पर निजीकरण का प्रभाव फिर भी सकारात्मक पडत़ा है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा विकासशील देशों में किए गए निजीकरण के अध्ययन में पाया गया कि इससे सीधे रोजगार का हनन होता है, लेकिन कुल रोजगार बढत़ा है। इस प्रकार देखें तो एयर इंडिया के निजीकरण के विरोध में दिए जा रहे तर्क कहीं टिकते नहीं। सरकार को चाहिए कि इस नीति को सभी सार्वजनिक उपक्रमों पर लागू करे, विशेषकर सरकारी बैंको पर।

अभ्युदय वात्सल्यम डेस्क