सबरीमाला के नाम पर मची अराजकता के बहाने गहरी ही हुईं हैं आस्था की जड़ें

निश्चित ही सबरीमाला के बहाने हिंदुत्व  के शत्रु जाहिर हो गए हैं लेकिन इसी विरोध के चलते आज केरल में स्थानीय जनमानस की आस्था बलवती हुई है और हिंदुत्व भी गहराई से पोषित हुआ है।

नवोदित सक्तावत

केरल का सबरीमाला मंदिर इन दिनों देश ही नहीं, दुनिया में भी चर्चा का विषय बना हुआ है। जिसे देखो वह बिना विषय की जानकारी के इस मामले पर बात करता दिखाई दे रहा है और अधूरी जानकारी वालों की कोई कमी नहीं है। तथ्यों की परवाह किए बिना ही लोगों को कथित बुद्धिजीवी कहलाने की इतनी लालसा जगी है कि वे जमीनी हकीकत को नजरअंदाज करते हुए अनर्गल वार्तालाप से बाज नहीं आ रहे। सोशल मीडिया का माध्यम इसके लिए पर्याप्त मंच का काम कर रहा है और आधारहीन तत्व यहां आकर अपने उथले ज्ञान का प्रदर्शन करने से बाज नहीं आ रहे। केरल के अयप्पा मंदिर में मान्यताओं के अनुसार १० से ५० साल की उम्र की महिलाओं का प्रवेश निषेध था। पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में एक आदेश देते हुए सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को वैधानिक करार देते हुए नया दृष्टांत निर्मित किया। इसके अनुसार अब इस मंदिर में महिलाएं प्रवेश कर सकती हैं। यह तो हुआ कोर्ट का आदेश, लेकिन हमें यह भी समझना चाहिये कि इस आदेश का धरातल पर कितना क्रियान्वयन हुआ। तथ्य बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद से मंदिर में प्रवेश करने के लिए रास्ते  तो खुल गए हैं लेकिन अब परिदृश्य कुछ दूसरा ही हो गया है। मंदिर के बाहर दर्शनार्थियों से अधिक प्रदर्शनकारियों का हुजूम है। ये प्रदर्शनकारी कौन हैं? ये वे लोग हैं जो सुप्रीम कोर्ट के आदेश का लगातार विरोध कर रहे हैं। पिछले दिनों में स्थानीय पुलिस एवं प्रशासन ने ऐसे करीब २३०० लोगों को गिरफ्तार किया है जो कि सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के खिलाफ हैं। अयप्पा  मंदिर में हर महीने पांच दिनों की पूजा-आरती का एक नियमित क्रम है, जिसमें प्रदर्शनकारियों ने उन महिलाओं को शामिल नहीं होने दिया जो कि १० से ५० वर्ष की आयु सीमा में आती हैं। प्रदर्शनकारियों की संख्या भी लगातार बढत़ी ही जा रही है। ऐसा नहीं है कि केवल केरल के पाथनमथिट्टा नामक जिले की जिस पहाड़ी पर सबरीमाला मंदिर है, वहीं इस विरोध की आंच है, बल्कि राजधानी तिरुअनंतपुरम, कोझिकोड, एर्नाकुलम समेत अन्यं जिलों में भी प्रदर्शन और गिरफ्तारी का सिलसिला जारी है। इतना ही नहीं, केरल राज्य सरकार अब इन प्रदर्शनकारियों को लेकर एक निश्चित कार्ययोजना भी बना रही है। मुख्यमंत्री पिनरई विजयन ने एक उच्च स्तरीय बैठक बुलाकर यह तय किया है कि ना केवल प्रदर्शनकारियों की धरपकड़ हो बल्कि इन पर मामले भी दर्ज किए जाएं। क्या यह सब आश्चयर्यजनक नहीं लगता। जिस सुप्रीम कोर्ट के आदेश को कथित रूप से ऐतिहासिक और खासकर महिलाओं के लिए राहत प्रदान करने वाला बताया गया, क्या वह स्वयं अराजकता का सबब नहीं बन गया है? यदि कोर्ट का आदेश वास्तग में सुधारवादी था तो उसके परिणामस्वरूप आखिर इतना बिगाड़ क्यों देखने को मिल रहा है? जरुर बुनियाद में ही कोई खामी है। असल में, हमें इसे जड़ से समझना होगा। यह मामला ऊपरी तौर पर जैसा दिखता है, वैसा है नहीं। यदि हम किसी अनाथ बच्चे को गोद लें और उसे यह कहें कि हम तुम्हें शिक्षा प्रदान करेंगे ताकि तुम कुछ बन सको। ऐसा कहते हुए हम उस बच्चे को ना सोने दें, ना खेलने दें, ना खाने दें या पीने दें और मनोरंजन से दूर कर दें और चौबीस घंटे उसे हाथ में किताबें थमाए रखें और लगातार कहें कि तुम केवल पढ़ाई करो, यह तुम्हारे हित में है, तो क्या  उस बच्चेे का सर्वांगीण विकास हो पाएगा? क्या वह स्वस्थ  चेतना को उपलब्ध हो पाएगा? नहीं। बहुत संभावना इस बात की है कि वह मुरझा जाएगा और बीमार हो जाएगा। हम भले ही अपनी तथाकथित सुधारवादी पहल का ढिंढोरा पीटते ना थकें लेकिन सच्चाई तो यही रहेगी कि बच्चों को सुधारने का हमारा हठ उसे बरबाद करके ही छोड़ेगा और ये हमारा कृत्य राहतवादी नहीं बल्कि विकृति का प्रतिमान माना जाएगा। ठीक इसी प्रकार सबरीमाला मंदिर मामले में भी घटित हुआ है। उस अंचल में वर्षों से प्रचलित यह परंपरा है कि अमुक आयु वर्ग की महिलाएं उस मंदिर में प्रवेश नहीं करतीं, तो यह एक जनसामान्य द्वारा मान्य और ग्राह्य धारणा थी। फिर कुछ तथाकथित सुधारवादी अचानक बीच में कहीं से आए और इस परंपरा को अपने छद्म एक्टिविज्म के बहाने चुनौती देने लगे। उन्होंने बिना इसकी गहराई से पडत़ाल किए बिना वहां की जनता क्या चाहती है, अपना नारीवादी, हिंदू विरोधी एजेंडे का राग अलापना शुरू कर दिया और इस बेसिर पैर के मसले को अदालत में ले गए। इन दिनों न्यायपालिका को भी तार्किकता का दामन छोडव़र लोकप्रियता पाने की जाने क्या  लालसा जागी है कि नजीर स्थापित करने के लालच में वह अपना मूल कार्य छोडव़र आधारहीन निर्णय देने में अधिक रुचि लेने लगी है। यहां इस तथ्य  का उल्लेख करना अहम होगा कि सबरीमाला मामले में निर्णय देने वाले जजों में एक महिला जज भी शामिल थीं और वे ज्यूरी के निर्णय से असहमत थीं। इस फैसले को केरल के परिप्रेक्ष्य से जोडव़र प्रचारित किया गया, जबकि फैसले का विरोध समान रूप से दिल्ली और बेंगलुरु की महिलाओं ने भी किया। केरल में तो महिलाएं इस फैसले के पक्ष में हैं ही नहीं। वे तो कहती हैं कि वे स्वेच्छा से इस मंदिर में प्रवेश नहीं करना चाहतीं, भले ही कोर्ट ने आदेश दिया हो। इस उथल-पुथल के बीच अब केरल में राजनीति गर्मा गई है। जहां भाजपा प्रदर्शनकारियों के पक्ष में है, वहीं केरल सरकार महिलाओं को भगवान अयप्पा के मंदिर में प्रवेश कराने की बात पर अड़ी हुई है। भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने भी शनिवार को कहा कि हमारी पार्टी भगवान अयप्पा के भक्तों के समर्थन में है। केरल के कन्नूर में एक कार्यक्रम में बोलते हुए शाह ने स्पष्ट किया कि भगवान अयप्पा के श्रद्धालुओं के प्रति केरल सरकार का रवैया दमनकारी है। एक कोर्ट के आदेश की आड़ में आखिर महिलाओं पर अत्याचार ही तो हो रहा है। इसके बारे में कोई बोलने वाला क्योें नहीं है। शाह की मानें तो बात में वजन दिखता है क्योंकि केरल ने कुछ-कुछ आपातकाल जैसे ही हालात पैदा कर दिए हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब स्थानीय महिलाएं, जो बरसों से इस परंपरा का मन से पालन करती आ रही हैं, जब वे ही मंदिर में प्रवेश नहीं करना चाहतीं तो आखिर वे कौन सी महिलाएं हैं जो सबरीमाला में प्रवेश के लिए बेहद लालायित और उतावली नजर आ रही हैं। केरल में वैसे भी हिंदुत्व खतरे में रहता है। तथ्य यह है कि सबरीमाला मंदिर में प्रवेश का प्रयास करने वाली महिला एक एक्टिविस्टर निकलीं और उसकी पहचान रेहाना फातिमा के तौर पर हुई। हालांकि इस किरकिरी के बाद उसके समाज ने उसका सामुदायिक निष्कासन तो कर दिया लेकिन वह तो केवल मोहरा थी। उसके पीछे वो असली चेहरे कौन से हैं जो जबरन महिलाओं को सबरीमाला में प्रवेश करा ही देना चाहते हैं। मानो यह उनके जीवन का कोई बड़ा ध्येय हो। आखिर इससे उन्हें  क्या हासिल हो जाएगा। सुप्रीम कोर्ट के जिस फैसले को बढ़ा-चढ़ाकर ऐतिहासिक प्रचारित किया जा रहा था, उसकी निरर्थकता क्या इस बात से प्रकट नहीं है कि मंदिर के मुख्य पुजारी ने ही फैसले को निराशाजनक बताते हुए इसे अमान्य कर दिया। सबरीमाला मंदिर का संचालन करने वाले त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड (टीडीबी) के अध्यक्ष ए पद्मकुमार ने सौजन्यतावश इतना अवश्य कहा कि वे सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू करने के लिए बाध्य हैं, बावजूद इससे सहमत तो कतई नहीं हैं। इस फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए अयप्पा धर्म सेना के अध्यक्ष राहुल ईश्वर ने भी पुनर्विचार याचिका दाखिल करने की बात कही थी। आखिर कहीं ना कहीं बुनियाद में त्रुटि अवश्य है। यह उपरोक्त उदाहरण जैसा ही है कि हम किसी भी बच्चे का बलपूर्वक विकास नहीं कर सकते। अपना हित व अहित समझने में वह बच्चा स्वयं सक्षम है ना कि हमारी जबरिया सुधारवादी सोच। इसी प्रकार सुप्रीम कोर्ट ने जो आदेश थोपा है, उसका पूरी तरह से लागू न हो पाना ही इस फैसले की व्यर्थता को प्रकट करता है। सबरीमाला मंदिर आम मंदिरों की तरह नहीं है। इस मामले में महिलाओं के भेदभाव का बहाना लेकर बहुत दुष्प्रचार किया गया है, लेकिन सच्चाई ये नहीं है। देश भर में हजारों मंदिर हैं जहां सभी आयु वर्ग की महिलाओं का प्रवेश मान्य है। आखिर उनका उदाहरण क्यों नहीं लिया जाता। केवल अयप्पा के मंदिर को ही लक्षित करने का क्या तुक है। इस मंदिर में रजस्वला महिलाओं का प्रवेश किसी फैसले के तहत बाधित नहीं किया गया था तो किसी फैसले के तहत उसे शुरू कैसे किया जा सकता है। कल से यदि कोर्ट किसी को भी चोरी करने की वैधानिक अनुमति दे देगी तो क्या सारे लोग चोर हो जाएंगे? नहीं। जो चोर नहीं हैं, वे किसी भी कीमत पर चोरी नहीं करेंगे। यह एक संस्कारगत, वृत्तिगत मामला है। यह किसी दंडात्मक आदेश से संचालित होने वाली बात नहीं है। जो महिलाएं सबरीमाला में प्रवेश नहीं कर रही हैं, वे स्वेेच्छा से इसका अभ्यास कर रही हैं। इसमें किसी को राजनीति खोजने की कोई जरूरत नहीं होनी चाहिये। समय आने पर यही महिलाएं प्रवेश करेंगी तो इसके लिए वे किसी कोर्ट से प्रमाणीकरण मांगने नहीं जाएंगी। यह उनकी निजी आस्थाा का मामला है और इसमें हस्तक्षेप करना न्यायपालिका के दायरे से बाहर की बात है। यदि न्याायपालिका पूरी तरह से तटस्थ  है तो वह संविधान की मूल भावना के आलोक में ही निर्णय पारित करे तो श्रेयस्कर होगा। भारतीय संविधान धार्मिक मान्यता की स्वंतंत्रता देता है, ऐसे में कोर्ट किसी भी आदेश को बलपूर्वक आरोपित नहीं कर सकता। सबरीमाला मंदिर आरंभ से एक अनुष्ठानिक स्थल रहा है, इसे वहीं रहने दिया जाए तो बेहतर होगा। इसके नाम पर अराजकता फैलाने वाले उजागर अवश्य हो गए हैं लेकिन किसी भी प्रतिबंधित आयु सीमा की महिला का इसमें प्रवेश ना करना एक बड़ा संदेश दे गया है कि धर्म आज भी व्यक्तिगत अभ्यास की विषय-वस्तु है, यह कानून से संचालित नहीं होता है। निश्चित ही सबरीमाला के बहाने हिंदुत्व  के शत्रु जाहिर हो गए हैं लेकिन इसी विरोध के चलते आज केरल में स्थानीय जनमानस की आस्था बलवती हुई है और हिंदुत्व भी गहराई से पोषित हुआ है।

 

अभ्युदय वात्सल्यम डेस्क