अग्नि में घी

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विश्व में ऐसा कौन सा सद्‌धर्म है कि जिसमें परतंत्रता और दासता को धिक्कारा नहीं गया हो। इसी कारण जहाँ परमेश्वर होगा वहाँ परतंत्रता कभी नहीं रह सकती और जहाँ परतंत्रता है वहाँ परमेश्वर का अधिष्ठान नहीं, वहाँ धर्म नहीं। एतदर्थ किसी भी प्रकार की परतंत्रता का अर्थ धर्म का उच्छेद एवं ईश्वरीय इच्छा का भंग होना है।

क्या मनुष्य जाति की उन्नति के लिए उत्पन्न हुए सारे धर्म मनुष्य जाति की अवनति के लिए उत्पन्न हुई परतंत्रता को एक क्षण भी जीवित रखने की आज्ञा देंगे? उसमें भी राजनीतिक परतंत्रता सभी परतंत्रताओं से मनुष्य जाति की अत्यंत भयानक अवनति करने वाली है, इसलिए इस अधम राक्षस का कंठच्छेदन करने की आज्ञा प्रमुखता से ही दी गई होगी। जो अन्याें को गुलाम बनाते हैं और जो गुलामी में रहते हैं, वे दोनाें ही मनुष्य जाति को नरक की ओर धकेलते हैं। इसलिए मनुष्य जाति को स्वर्ग की ओर ले जाने वाले सद्‌धर्म इस राजनीतिक गुलामी को नष्ट करने के लिए अपने अनुयायियाें को बार-बार उपदेश देते हैं। उनका यह उपदेश अस्वीकार करने वाले सारे लोग धर्मद्रोही हैं। दूसराें को गुलामी में ढकेलने वाले अंग्रेज भले ही रोज चर्च में जाएँ, वे धर्मद्रोही ही हैं और परतंत्रता के नरक में स़डने वाले भारतीय रोज शरीर पर भभूत मलते रहें तब भी वे धर्मद्रोही ही हैं। जो किसी भी तरह की दासता में रहते हैं वे सारे हिंदू धर्मभ्रष्ट हैं और वे सारे मुसलमान भी धर्मभ्रष्ट हैं, फिर वे चाहे रोज हजार बार संध्या-वंदन कर रहे हाें या हजार बार नमाज प़ढ रहे हाें। यह ध्यान में रखकर ही श्री समर्थ रामदास ने स्वराज्य-प्राप्ति को धर्म का मुख्य कर्तव्य कहा है। जो राज्य अपनी इच्छा के विरुद्ध बलपूर्वक अपने पर थोपा गया है-ऐसे पर-राज्य को उखा़ड फेंकना, गुलामी की बेि़डयाँ तो़ड देना और मनुष्य जाति की उन्नति का जो प्रथम साधन होता है, वह स्वराज्य प्राप्त करना, स्वतंत्रता प्राप्त करना धर्म का प्रधान कर्तव्य है, ऐसा प्राणनाथ प्रभु का छत्रसाल को दिया गया या समर्थ का शिवाजी को दिया गया उपदेश दो शताब्दियाें बाद हिंदुस्थान की पुण्यभूमि के पुरूषाें के कान में ज्ञात या अज्ञात रूप से सन्‌ १८५७ में फिर से गूँजने लगा।

हिंदुस्थान की पुण्यभूमि की स्वतंत्रता का हरण कर अंग्रेजाें ने सभी धमर्ाें को तो अपने पैराें तले कुचला ही था, परंतु धर्म का सैद्धांतिक अपमान पूरा नहीं है, ऐसा लगने पर ही शायद, इस हिंदुस्थान के पवित्र धर्म का व्यावहारिक अपमान करने के लिए वे बहुत आतुर थे। अप्रÀीका और अमेरिका में वहाँ के निवासियाें को ईसाई धर्म की दीक्षा देने के काम में मिली सफलता से बहके हुए पश्चिमवासियाें को अप्रÀीका की भाँति ही हिंदुस्थान में भी सारे लोगाें को ईसाई बना डालने की भारी आशा थी। वेद और प्राचीन हिंदू धर्म तथा ईसाइयत की पीठ पर नÀत्य करते इस्लाम के ज़ड-मूल कितने गहरे हैं, इसका उन्हें जरा भी ज्ञान नहीं था। दर्शनशास्त्र, भक्ति-प्रेम एवं नीति-निपुणता में सारे जग का आदिगुरू आर्य धर्म आज तक कितनाें के ही नामकरण और नामशेष देखता आया है, यह इन अल्प बुद्धिवालाें को कैसे ज्ञात हो! उन्हें आज पूरे हिंदुस्थान को ईसाई बनाने की रत्ती भर भी आशा शेष नहीं है-फिर भी सन्‌ १८५७ तक उन्हें इस सफलता के संबंध में पूरा विश्वास था। औरंगजेब जैसे खुले द्वेष से भी भयानक गला काटने वाला द्वेष करने और हिंदुस्थान को अनजाने ईसामय बना डालने का उनका दृ़ढ उद्देश्य था। इतना ही नहीं अपितु इस हेतु उनके खुले प्रयास भी चल रहे थे।

हिंदुस्थान में पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति प्रारंभ करने वाला मैकाले अपने एक निजी पत्र में लिखता है-अपनी यह शिक्षा प्रणाली ऐसी ही बनी रही तो तीस वर्ष में पूरा बंगाल ईसाई हो जाएगा। इस टिटहरी को ऐसी आशा और विश्वास था कि अपनी चाेंच से मैं यह अगाध समुद्र देखते-देखते पी जाऊँगी। सारे हिंदुस्थान को ईसाई बना डालने के लिए हर अंग्रेज की कुछ-न-कुछ योजनाएँ अवश्य होती थीं। इस धर्म- प्रवर्तन को प्रकटतः मदद करने वाला हजाराें मिशनरियाें द्वारा किया जाने वाला निवेदन मानकर उसके अनुसार हिंदू और इसलाम धर्म की गरदन पर तलवार चलाने का कार्य भी अंग्रेजी सरकार द्वारा किया जाता था, परंतु उस राष्ट्र को धर्म-प्रवर्तन की अपेक्षा व्यापार-प्रवर्तन और यीशू की तुलना में द्रव्य भक्ति अधिक होने के कारण ऐसे खुले कार्य करके धर्म के लिए हिंदुस्थान का राज्य होने से निकलने देने की गलती उसने नहीं की। इच्छा नहीं थी, ऐसा नहीं, पर हिम्मत नहीं थी। फिर भी, ब़डे-ब़डे नाम देकर और अपना मूल हेतु छिपाते हुए सती प्रथा प्रतिबंध, विधवा विवाह को समर्थन, दत्तक पुत्राधिकार की समाप्ति आदि अवसराें पर हिंदुस्थान की धर्म-आस्थाओं में परिवर्तन करने का प्रयास उन्हाेंने प्रारंभ कर ही दिया था। मिशनरियाें के तहत चलने वाले स्कूलाें को सरकारी धन की सहायता बिना रूके मिल रही थी। ब़डे-ब़डे आर्कबिशपाें के वेतन ब़डे-ब़डे सरकारी अधिकारियाें द्वारा हिंदुस्थान की जनता को निचो़डकर जमा किए गए धन से दिए जाते थे। ये अधिकारी अपने अधीनस्थ लोगाें को अपने पवित्र धर्म को त्यागकर ईसाई होने का उपदेश करते। सरकारी कागजाें में हिंदुस्थान के लोगाें का उल्लेख ‘पूपह” शब्द से किया जाता। अंग्रेजी कर्मचारियाें का अधिकार समय आसमानी बाप का शुभ चरित सुनाने में ही जाता था।
सेना में जो अंग्रेज घुसते थे उनमें से कितने ही केवल अधिकार के बल पर भारतीय धर्म की खिल्ली उ़डाने के लिए ही घुसते थे। शांति काल में सेना के लोगाें को कोई काम न होता था, अतः उस समय हिंदू और मुसलमान सिपाहियाें को यीशू का चरित सुनाने को विपुल समय मिलने से लश्करी विभाग में यत्र-तत्र इन मिशनरी कर्नलाें और सेनापतियाें की आवाजाही ब़ढ गई थी। जिस रामचंद्र के पवित्र नामोच्चार से हर हिंदू के हृदय में भक्तिभाव उम़ड प़डता है और जिस मोहम्मद के नाम से सारे मुसलमानाें की रग-रग से प्रेम झलक प़डता है उस रामचंद्र के और उस मोहम्मद के नाम को वे पादरी कर्नल गालियाँ बकते। उठते-बैठते भारतीय सिपाहियाें को अधिकार के जोर से चुप बैठाकर वे उनके सामने उनके प्राणप्रिय वेदाें और कुरान की डटकर निंदा करते थे। इन मानवी राक्षसाें का यह उद्योग किस तरह निरंतर चल रहा था और इस कार्य का उन्हें कितना अभिमान था, इसका स्वरूप स्पष्ट करने के लिए एक व्यक्ति से संबंधित उदाहरण देना आवश्यक है। सारे धमर्ाें का जनक आर्य धर्म तथा ईसाइयत की गरदन पर छुरी रखकर आगे ब़ढा हुआ मोहम्मदी धर्म, इन दोनाें धमर्ाें को और उनके अनुयायियाें को अपने टुटपुँजिया शुभ चरित से ठगना चाहने वाले इन पादरी सेनापतियाें में से बंगाल पैदल रेजीमेंट का एक कमांडर ब़डे घमंड से कहता है- मैं गत बीस वषर्ाें से यह शुभ चरित का कार्य निरंतर कर रहा हूँ। इन काफिर लोगांे की आत्मा को शैतान से बचना एक फौजी कर्तव्य ही है। हिंदुस्थान के धन पर मोटे हुए ये पादरी वीर एक हाथ में लश्करी आदेशाें की पुस्तक और दूसरे हाथ में बाइबिल लेकर इस देश के सिपाहियाें को धर्मच्युत करने का प्रयास दिन-रात करते रहते थे। इतना ही नहीं अपितु उस प्रयास में जल्दी सफलता मिले, इसके लिए धर्मांतरण करने वाले सिपाही को पदोन्नति का खुला वचन देते थे। सिपाही अपना धर्म छो़डे तो हवलदार हो जाता था और हवलदार-सूबेदार, मेजर। इस प्रकार सेना विभाग एक तरह से बलात्‌ ईसाई बनाने का मिशन हो जाता था। हिंदुस्थान के धन से मुटाए हाथ और हिंदुस्थानी पैसे से खरीदी गई तलवार से हिंदुस्थानी धर्म को ही चोट पहुँचाने के अंग्रेजाें के इस हेतु के विरुद्ध संशय उत्पन्न हुआ और उसमें हर रोज जु़डती नई-नई घटनाओं के कारण सारे हिंदुस्थान को ईसाई बनाने की अंग्रेजी नीति सबको स्पष्ट दिखने लगी। अपने सनातन आर्य धर्म का और अपने प्राणप्रिय इस्लाम धर्म का मीठी छुरी से गला काटा जा रहा है, यह देखते ही हिंदू और मुसलमान व्रÀोधित हो उठे। फिरंगियाें के असह्य अत्याचाराें से उनके शरीर जलने लगे और धर्म-रक्षा के लिए प्राण भी देने के लिए वे शपथ लेने लगे।

और इसी भ़डकती आग में घी डालने को हिंदुस्थानी लश्कर में नए कारतूस उपयोग करने का आदेश आ गया। नए प्रकार की बंदूकाें के लिए नए कारतूस काम में लाने की आवश्यकता प़ड जाने से इन कारतूसाें का कारखाना हिंदुस्थान में लगाने का प्रस्ताव सरकार ने किया। यह प्रस्ताव यद्यपि सन्‌ १८५७ के आरंभ में अमल में आया, फिर भी इन कारतूसाें का प्रवेश पहले ही हो गया था। हिंदुस्थान के हिंदू और मुसलमानाें की धर्म-निष्ठाओं को तुच्छ मानने वाली फिरंगी सरकार ने इंग्लैंड में तैयार गाय की चरबी लगे ये कारतूस सन्‌ १८५३ में ही हिंदुस्थान में भेजे थे, ऐसा अब सिद्ध हो गया है। अंग्रेजाें ने यह बात गुप्त रखकर कि उन कारतूसाें में कारतूस को गाय और सूअर की चरबी लगाई जाती है, इस अफवाह पर सिपाहियाें ने अंधविश्वास किया, ऐसा कहने वाले निर्लज्ज लोग, दमदम कारखाने में जो ठेकेदार चरबी देता था उसका करार पत्र अवश्य देखें, जिससे इसका स्पष्ट उत्तर मिलेगा कि उन कारतूसाें में गाय की चरबी का उपयोग किया जाता था या नहीं। हिंदू लोग जिसे माँ मानते हैं उस गाय की चरबी की आपूर्ति दो आने की एक पौंड की दर से की जाती थी और उस चरबी में सूअर की चरबी का अंश मिलाया जाता था, यह भी असंभव नहीं है। इन कारतूसाें का हल्ला होते ही सन्‌ १८५७ की २९ जनवरी को एक सरक्यूलर भेजा गया था। उसमें से सरकारी हुकूमत कहती है- नेटिव सिपाहियाें के लिए बनने वाले कारतूसाें को केवल बकरी या बकरे की चरबी लगाई जाए, सूअर या गाय की चरबी बिलकुल काम में न ली जाए। जल्दबाजी में निकाले गए सरक्यूलर से यही सिद्ध होता है कि गाय या सूअर की चरबी न लगाने का इसके पहले नियम नहीं था। दमदम और मेरठ में इन कारतूसाें के कारखाने थे। दमदम के कारखाने में काम करनेवाले एक मेहतर ने एक ब्राह्मण से उसके लोटे का पानी माँगा। ऐसा करने पर वह लोटा भ्रष्ट हो जाएगा, उस ब्राह्मण के ऐसा कहते ही वह मेहतर बोला, अब सब ओर भ्रष्टता फैलेगी। जिन कारतूसाें को तुम दाँत से तो़डोगे उन कारतूसाें पर गाय और सूअर की चरबी म़ढी जा रही है। यह सुनते ही वह ब्राह्मण दूसरे सिपाहियाें को वह बात कहने लगा। दमदम में जल्दी ही सारे सिपाही संशयग्रस्त हो गए और उन्हाेंने प़डताल की तो यह सत्य स्पष्ट हो गया कि कारतूसाें को गाय और सूअर की चरबी लगाई जाती है। दमदम का यह समाचार आग की तरह सब ओर फैल गया। हर सिपाही को अपने हाथाें में गाय और सूअर की चरबी दिखने लगी। और हर लश्करी शिविर में ईसाई लोगाें के इस षड्‌यंत्र से हर एक को अपने धर्म और अपने अस्तित्व का एक क्षण का भी भरोसा नहीं रहा। यह देखकर अंग्रेजी सरकार घबरा उठी और उसने अपना कुकृत्य छिपाने के लिए ऐसी झूठी और नीच बातें कहनी शुरू कीं जिससे की मनुष्य जाति को कालिख पुती रहे। कारतूसाें को गाय और सूअर की चरबी लगाई हुई थीं, यह जब अस्वीकार करना कठिन हो गया, तब हिंदुस्थानी सरकार के लश्करी सचिव बर्च ने सरकारी घोषणा की कि मेरठ और दमदम में तैयार होने वाले नए कारतूस हमने अभी तक बिलकुल नहीं बाँटे हैं। उसका यह कथन बिलकुल झूठ था। अंबाला, सियालकोट और बंदूकाें के प्रशिक्षण के लिए चलाए गए नए लश्करी वगर्ाें में ये चरबी लगे कारतूस सन्‌ १८५६ से ही भेजे जा रहे थे। अंबाला डिपो में २२,५०० और सियालकोट को १४,००० कारतूस २३ अक्तूबर, १८५६ को भेजे गए, फिर भी कर्नल बर्च जनवरी १८५७ में सरकारी घोषणा करता है कि कारखाने से एक भी कारतूस नहीं भेजा गया। जहाँ लश्करी वर्ग चल रहे थे वहाँ नई बंदूकाें के प्रशिक्षण में इन कारतूसाें का उपयोग नहीं किया गया, यह असंभव था। इसके पहले लिखा जा चुका है कि सन्‌ १८५३ में यही कारतूस भारतीय सिपाहियाें को कोई जानकारी न देते हुए उपयोग के लिए दिए गए थे। गुरखा पलटन में तो ये कारतूस खुलेआम बाँटे गए थे। फिर भी बर्च किसी उस्ताद उचक्के जैसा सीना तानकर कहता है कि चरबी लगा एक भी कारतूस नहीं बाँटा गया था।
भोले सिपाहियाें को चाहे जैसी लुका-छिपी कर धोखे में रखना चाहने वाली सरकार का यह प्रयास विफल हो जाने पर अब सिपाहियाें को ऐसी अनुमति दी गई कि वे चाहे कोई भी चिपचिपी वस्तु अपने कारतूसाें में स्वयं ही लगा लें। इस अनुमति का परिणाम जो होना था वही हुआ। सरकार द्वारा चरबी लगाने की जिद इतनी जल्दी छो़ड देने का अर्थ है कि एक ओर चुप करके दूसरी ओर से छल करने की उसकी योजना होगी-ऐसा उनको पक्की तरह लगने लगा। चरबी की जगह पर चाहे कोई भी चिपचिपी वस्तु लगाने को कहा अवश्य गया, परंतु जिस सरकार ने चुपके से चरबी में गाय का और सूअर का मांस डाला था वह सरकार इन कारतूसाें पर लगे कागज पर वैसा चिपचिपापन लाने के लिए ऐसा ही कोई धर्मबाह्य पदार्थ लगाने का प्रयास नहीं करेगी, इसको कैसे माना जाए? अतः ये कारतूस किसी भी मूल्य पर नहीं लेना है, यह दृ़ढ निश्चय सब लोगाें को करना चाहिए।

पर यह निश्चय हो गया तो भी इतने से मुख्य आपदा तो टलने वाली नहीं है। बहुत हुआ तो ये कारतूस नहीं दिए जाएँगे। परंतु इनके स्थान पर कल कोई दूसरी आपदा आएगी। अर्थात्‌ इन कारतूसाें को न लेने से भी धर्म पर आई वास्तविक आपदा टलने वाली नहीं है। गुलामी के नरक में गिरे लोगाें का धर्म पवित्र कैसे रह सकता है। गाय की चरबी तो क्या, देशमाता की चरबी काटकर निकाली जा रही है- इस बात को भुला देने वालाें का धर्म जीवित कैसे रह सकता है? सद्‌धर्म स्वर्ग में रहता है और गुलामी में प़डे लोग नरक में रहते हैं। अतः यदि उन्हें धर्म चाहिए तो उन्हें गुलामी की गंदगी अपने और अपने शत्रुओं के रक्त से धोकर साफ करनी चाहिए।

इसलिए अब कारतूस लें या न लें, हे हिंदुस्थान! धर्मरक्षण यदि आवश्यक हो, धर्म के उद्देश्य के लिए मानव का जो प्रगमन आवश्यक है उसे साधने का यदि तेरा हेतु हो और यदि अपमान पर तुझे लज्जा आती है तो इस गुलामी को भंग करने को तैयार हो जा। धर्म के लिए मर, मरते-मरते सबको मार और मारते-मारते स्वराज्य प्राप्त कर। सन्‌ १८५७ का वर्ष उदय हो चुका है, इसलिए उठ! हिंदुस्थान उठ! और स्वराज्य प्राप्त कर।

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