राष्ट्रवाद की सही कल्पना

अंग्रेजो के शासनकाल में देश में जितने भी आन्दोलन चले और देश की जितनी भी राजनीति थी, उन सबका एक ही लक्ष्य था कि अंग्रजों को हटाकर हम स्वराज्य प्राप्त करें। स्वराज्य के बाद हमारा रूप क्या होगा? हम किस दिशा में आगे बढ़ेंगे? इसका बहुत कुछ विचार नहीं हुआ था। बहुत कुछ शब्द का मैंने प्रयोग इसलिए किया है कि बिल्कुल विचार नहीं हुआ था यह कहना ठीक न होगा। ऐसे लोग थे जिन्होंने उस समय भी बहुत सी बातों पर विचार किया था। स्वयं गांधी जी ने हिंद-स्वराज्य लिखकर उसमें, स्वराज्य आने के बाद भारत का चित्र क्या होगा इस पर अपने विचार रखे थे। उसके पहले लोकमान्य तिलक ने भी गीता रहस्य लिखकर, सम्पूर्ण आंदोलन के पीछे की तात्विक भूमिका क्या होगी इसका विवेचन किया था। साथ ही उस समय विश्व में जो भिन्न-भिन्न विचार सारणियाँ चल रहीं थीं, उनकी भी तुलनात्मक दृष्टि से आलोचना की थी।

इसके अतिरिक्त समय-समय पर कांग्रेस या दूसरे राजनीतिक दलों ने जो प्रस्ताव स्वीकार किये, उनमें भी ये विचार आये थे। किंतु उन सबका जितना गंभीर अध्ययन होना चाहिए था उतना उस समय तक नहीं हुआ था, क्योंकि सबके सामने प्रमुख प्रश्न यही था कि पहले हम अंग्रेजों को निकालें फिर अपने घर का निर्माण कैसे करेंगे, इसका विचार कर लेंगे। इसलिए यदि विचारों के मतभेद भी कहीं थे तो लोगों ने उनको दबाकर रखा था। यहाँ तक कि समाजवाद के आधार पर आगे का भारत बनना चाहिए, इस तरह का विचार करने वाले जो लोग थे, वे कांग्रेस के अंदर ही एक सोशलिस्ट पार्टी बनाकर काम करते रहे। उसके बाहर निकलकर उन्होंने अलग से कार्य करने का प्रयत्न नहीं किया। क्रांतिकारी भी अपने-अपने विचारों के अनुसार स्वराज्य के लिए काम करते थे। इसी प्रकार और भी लोग थे, किन्तु प्रमुखता इसी बात की रही कि पहले देश को स्वतंत्र कर लिया जाये।

अतः, देश स्वतंत्र होने के बाद स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न हम सब लोगों के सामने आना चाहिए था कि अब हमारे देश की दिशा क्या होगी? किंतु सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि देश की स्वतंत्रता के बाद भी जितने गंभीर रूप से इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए था, उतने गंभीर रूप से लोगों ने विचार नहीं किया और आज भी जब ६३-६४ वर्ष देश को स्वतंत्र हुए हो गये, हम यह नहीं कह सकते कि कोई दिशा निश्चित हो गयी है।
भारत किधर जाने वाला है?

समय-समय पर कांग्रेस या दूसरे दल के लोगों ने कल्याणकारी राज्य, समाजवाद, उदारमतवाद आदि का ध्येय अवश्य घोषित किया है, विविध नारे लगाये हैं, परन्तु ये जितने नारे लगाने वाले लोग हैं उनके सामने उन सब विचारधाराओं का नारे से अधिक कोई महत्व नहीं रहता। यह बात मैं इसलिए कह रहा हूँ कि इसका मुझे अनुभव है। एक बार एक सज्जन से बातचीत हो रही थी। वे कह रहे थे कि कांग्रेस के विरुद्ध मिलजुल कर हमें एक मोर्चा बनाना चाहिए ताकि अच्छी तरह से लड़ सकें। राजनीतिक दृष्टि से समय-समय पर इस प्रकार की नीतियाँ लेकर दल चलते हैं और इसलिए उनके प्रस्ताव में कोई अनुचित बात नहीं थी, किंतु बात करते करते मैंने सहज पूछ लिया कि हम लोग मोर्चा तो शायद बना लेंगे, परन्तु थोड़ा-बहुत कार्यक्रम पर भी विचार कर लिया जाये तो बहुत अच्छा होगा। कौन-सा आर्थिक कार्यक्रम लेकर चलें? कौन-सा राजनीतिक कार्यक्रम लेकर चलें? इन प्रश्नों पर भी विचार करना चाहिए।
इस पर उन्होंने सहज भाव से कह दिया कि इसकी कोई चिंता करने की आवश्यकता नहीं है, आपको जो पसंद हो स्वीकार कर लीजिए। हम तो घोर साम्यवादी कार्यक्रम से लेकर बिल्कुल पूँजीवादी कार्यक्रम तक जो आप चाहें, उसका समर्थन कर देंगे। उनको किसी भी कार्यक्रम में कोई आपत्ति नहीं थी। उद्देश्य केवल इतना ही था कि किसी न किसी प्रकार से कांग्रेस को हरा देना चाहिए। आज भी बहुत बार लोग कहते हैं कि कम्युनिस्टों तथा बाकी सब लोगों से मिलकर भी कांग्रेस को हरा दिया जाये।

साँप-नेवला एक साथ केरल में अभी-अभी चुनाव हुए हैं। उसमें कम्युनिस्ट, मुस्लिम लीग, स्वतंत्र पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, विद्रोही कांग्रेस जो केरल कांग्रेस के नाम से आयी, कांतिकारी सोशलिस्ट पार्टी आदि जितनी भी पार्टियां हैं, इनमें आपस में भिन्न-भिन्न प्रकार से गठबंधन हुए। इन गठबंधनों के कारण यह पता नहीं लग सकता था कि इनके कोई राजनीतिक सिद्धांत, विचार अथवा आदर्श भी हैं, या नहीं। विचारों की दृष्टि से यह स्थिति है। कांग्रेस में भी यह बात दिखाई दे रही है। यद्यपि कांग्रेस ने प्रजातंत्रीय समाजवाद का सिद्धांत स्वीकार किया है, तथापि कांग्रेस के लोग जो बताते हैं उसमें यही दिखाई देता है कि वहाँ पर एक निश्चित सिद्धांत, निश्चित कार्यक्रम नहीं। घोर कम्युनिस्ट विचारधारा वाले भी कांग्रेस के अंदर विद्यमान हैं और उस कम्युनिज्म का डटकर विरोध करते हुए पूंजीवादी विचारधारा वाले भी कांग्रेस के अंदर विद्यमान हैं। “अहि-नकुल योग” के अनुसार नेवले और साँप के सह-अस्तित्त्व का कोई जादू का पिटारा हो सकता है तो वह आज की कांग्रेस है।

हमें आत्माभिमुख होना पड़ेगा

इस स्थिति में हम आगे बढ़ सकेंगे या नहीं, इसका हमें व़िचार करना चाहिए। देश में आज की अनेक समस्याओं की कारण-मीमांसा करें तो पता चलेगा कि अपने गंतव्य और उसकी दिशा का अज्ञान बहुतांश में आज की व्यवस्था के लिए जिम्मेदार है। यह तो मैं मानता हूँ कि हिन्दुस्थान के सभी ४५ करोड़ लोग सब प्रश्नों पर अथवा किसी एक प्रश्न पर भी पूर्णतः एक-विचार और एकमत नहीं हो सकते। किसी भी देश में यह संभव नहीं है। फिर भी राष्ट्र की एक “सामान्य इच्छा” नाम की कोई वस्तु होती है। उसको आधार बनाकर काम किया जाए तो सर्वसामान्य व्यक्ति को लगता है कि मेरे मन के अनुसार काम हो रहा है। उसमें से विचारों की अधिकतम एकता भी पैदा होती है। अक्टूबर-नवम्बर १९६२ में कम्युनिस्ट चीन के आक्रमण के समय जनता की अवस्था इस तथ्य का अच्छा उदाहरण है। उस समय देश में एक उत्साह की लहर पैदा हो गयी थी। कर्म और त्याग दोनों की शक्ति जागृत हो गयी थी। जनता और सरकार के बीच भिन्न-भिन्न दलों के बीच, नेता और जनता के बीच कोई खाई नहीं दिखाई देती थी। यह सब कैसे हुआ। परकीय सत्ता द्वारा लायी गयी आपत्ति ने हमें आत्मभिमुख किया। सरकार ने वह नीति अपनायी जो जनता के मन के अनुसार तथा पुरुषार्थ का आह्‌वान करने वाली थी। फलतः हम एक होकर खड़े हो गये।

समस्याओं का कारण- “स्व के प्रति दुर्लक्ष्य”

आवश्यकता है कि अपने “स्व” का विचार किया जाये। बिना उसके स्वराज्य का कोई अर्थ नहीं, स्वतंत्रता हमारे विकास और सुख का साधन नहीं बन सकती। जब तक हमें अपनी वास्तविकता का पता नहीं, तब तक हमें शक्तियों का ज्ञान नहीं हो सकता और न उनका विकास ही संभव है। परतंत्रता में समाज का “स्व” दब जाता है। इसीलिए राष्ट्र स्वराज्य की कामना करते हैं जिससे वे अपने प्रकृृति और गुणधर्म के अनुसार प्रयत्न करते हुए सुख की अनुभूति कर सकें। प्रकृति बलवती होती है। उसके प्रतिकूल काम करने से अथवा उसकी ओर दुर्लक्ष्य करने से कष्ट होते हैं। “प्रकृति” का उन्नयन कर उसे “संस्कृृति” बनाया जा सकता है, पर उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। आधुनिक मनोविज्ञान बताता है कि किस प्रकार मानव-प्रकृति एवं भावों की अवहेलना से व्यक्ति के जीवन में अनेक रोग पैदा हो जाते हैं। ऐसा व्यक्ति प्रायः उदासीन एवं अनमना रहता है। उसकी कर्मशक्ति क्षीण हो जाती है, अथवा विकृत होकर विपथगानिमी बन जात्ी है। व्यक्ति के समान राष्ट्र भी प्रकृति के प्रतिकूल चलने पर अनेक व्यथाओं के शिकार बनते हैं। आज भारत की अनेक समस्याओं का यही कारण है।

राजनीति में अवसरवादिता

राष्ट्र का मार्गदर्शन करने वाले तथा राजनीति के क्षेत्र में काम करने वाले अधिकांश व्यक्ति इस प्रश्न की ओर उदासीन हैं। फलतः भारत की राजनीति अवसरवादी एवं सिध्दांतहीन व्यक्तियों को अखाड़ा बन गयी है। राजनीतिज्ञों तथा राजनीतिक दलों के न कोई सिध्दांत एवं आदर्श हैं, और न कोई आचार संहिता। एक दल छोडव़र दूसरे दल में जाने में व्यक्ति को कोई संकोच नहीं होता। दलों के विघटन अथवा विभिन्न दलों की युक्ति भी होती है तो वह किसी तात्विक मतभेद अथवा समानता के आधार पर नहीं, प्रत्युत्‌ उसके मूल में चुनाव और पद ही प्रमुख रुप से रहते हैं। १९३७ में जब हाफिस मुहम्मद इब्राहीम मुस्लिम लीग के टिकट पर चुने जाने के बाद कांग्रेस में सम्मिलत हुए तो उन्होंने स्वस्थ राजनीतिक परम्परा के अनुसार विधान-सभा से त्याग-पत्र देकर पुनः कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीतकर आये। १९४८ में जब कांग्रेस से अलग हटकर सोश़्िलस्ट पार्टी का निर्माण तब सभी सोशलिस्टों ने, जो विधानमंडलों के सदस्य थे, त्यागपत्र देकर अपने-अपने क्षेत्र से पुनः चुनाव लड़े। िकिंतु उसके बाद किसी ने इस परम्परा का निर्वाह नहीं किया। अब राजनीतिक क्षेत्र में पूर्ण स्वैराचार है। इसी का परिणाम है कि आज सभी के विषय में जनता के मन में समान रुप से अनास्था है। ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं कि जिसकी आचरण-हीनता के विषय में कुछ कहा जाये तो जनता विश्वास न करे। इस स्थिति को बदलना होगा। बिना उसके समाज में व्यवस्था और एकता नहीं स्थापित की जा सकती।

हम किस ओर चलें?

हम किस ओर चलें? राष्ट्र के सामने यह प्रश्न है। कुछ लोग कहते हैं कि राष्ट्र के परतंत्र होने के पूर्व एक हजार वर्ष पहले जहां हमने राष्ट्र जीवन का सूत्र छोड़ दिय़ा था, वहां से हम उसे आगे बढ़ायें। पर राष्ट्र कोई वस्त्र या पुस्तक के समान निर्जीव वस्तु तो नहीं है जिसे बुनते या पढत़े समय जहाँ एक बार छोड़ दिया, वहाँ से फिर किसी विशेष अवधि के बाद उसे आगे बढ़ाया जा सके। फिर यह कहना भी युक्तिसंगत नहीं होगा कि परतंत्रता के साथ एक हजार वर्ष पूर्व हमारे जीवन का सूत्र एकदम टूट गया तथा तब से अब तक हम पूर्णतया निष्क्रिय अथवा गतिहीन रहे हैं। बदली हुई परिस्थितियों में हमने अपने जीवन को बनाये रखने तथा स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने में अपने जीवन को अभिव्यक्त किया। हमारा प्रवाह अवरुध्द नहीं रहा, वह आगे बढत़ा गया है। गंगा की धारा को लौटाने का प्रयत्न बुद्धिमानी नहीं होगी। बनारस की गंगा हरिद्वार के समान शीतल एवं स्वच्छ चाहे जिन नदी-नालों को उसने आत्मसात्‌ कर लिया है, उनकी कलुषा तथा गन्दगी की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं। वे गंगा में मिलकर गंगा ही बन गये हैं। अब तो गंगा के प्रवाह को आगे ही बढ़ाना होगा।

यदि सम्पूर्ण स्थिति इतनी ही होती तब तो कोई कठिनाई नहीं थी। विश्व में हम अकेले ही तो नहीं है। दूसरे राष्ट्र भी हैं। उन्होंने पिछले एक हजार वर्ष में अभूतपूर्व उन्नति की है। हमारा सम्पूर्ण ध्यान तो अपनी स्वतंत्रता के लिए लडऩे तथा अपनी रक्षा के प्रयत्नों में ही लगा रहा है। विश्व की इस प्रगति में हम सहभागी नहीं हो सके। अब जब हम स्वतंत्र हो ाये हैं तो क्या हमारा कर्तव्य नहीं हो जाता कि हम अपनी इस कमी को शीघ्रतिशीघ्र पूरा करके विश्व के इन प्रगतिशील देशों के साथ खड़े हो जायें? यहाँ तक तो, मैं समझता हूँ, मतभेद की कोई संभावना नहीं हैं।

स्वदेशी की भावना सर्वव्यापी हो समस्या तब पैदा होती है जब हम प़िश्चम की प्रगति के कारणों तथा परिणामों अथवा वास्तविकता एवं भासमान के संबंध में ठीक-ठीक निर्णय नही कर पाते। यह कठिनाई तब और ब़़्ाढ जाती है जब हम यह देखते हैं कि इन प्रगत देशों में से एक ने हमारे ऊपर डेढ़ सौ वर्षों तक राज्य किया तथा अपने राज्यकाल में उसने ऐसे अनेक उपाय किये जिससे हमारे अंदर अपने संबंध में तिरस्कार तथा उसके विषय में आदर का भाव पैदा हो जाये। पश्विम के ज्ञान-विज्ञान के साथ ही पश्विमी देशों के रहन-सहन,बोलचाल, खानपान, आदि की रीतियाँ भी इस देश में आयीं। भौतिक-विज्ञान ही नहींं, अपितु नीतिशास्त्र, राज्यव्यवस्था, अर्थनीति तथा समाज-धारणा के क्षेत्र में भी इन देशों के मानदण्ड हमारे मानक बन गये। आज भारत के शिक्षित वर्ग के जीवन-मूल्यों पर पश्चिम का यह प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। हमें निर्णय करना पड़ेगा क़ि यह प्रभाव अच्छा है या बुरा।

जब तक अंग्रेज थे तब तक तो हम स्वदेशी की भावना से अंग्रेजियत को दूर रखने में ही गौरव समझते थे, किंतु अब जब अंग्रेज चला गया है तब अंग्रेजियत पश्चिम की प्रगति का द्योतक एवम्‌ माध्यम बनकर अनुकरण की वास्तु बन गयी है। यदि यह सत्य है तो संकुचित राष्ट्रीयता के भाव को आड़े लाकर राष्ट्र की प्रगति में बाधा डालना ठीक नहीं होगा। किंतु इसके विपरीत, पाश्चात्य जीवन-मूल्यों और विज्ञान की प्रगति को यदि अलग किया जा सकता है तो अंग्रेजियत के मोहवरण का परित्याग करना ही हमारे लिए श्रेयस्कर होगा। पर कुछ ऐसे भी हैं जो पाश्चात्य राजनीति एवम्‌ अर्थनीति की दिशा को ही प्रगति की दिशा समझते हैं और इसलिए भारत पर वहाँ की स्थिति का प्रक्षेपण करना चाहते हैं। अतः भारत की भावी दिशा का निर्णय करने से पूर्व यह उचित होगा कि हम पश्चिम की राजनीति के वैचारिक अधिष्ठान तथा उनकी वर्तमान पहेली का विचार कर लें।

यूरोप में राष्ट्रों का उदय जिन विचारधाराओं ने यूरोपीय राजनीति एवं जीवन को विशेषतः प्रभावित किया है उनमें राष्ट्रवाद, प्रजातंत्र तथा समाजवाद की प्रमुख रुप से गणना की जा सकती है। इनके साथ ही विश्व एकता तथा शांति का स्वप्न देखने वाले भी वहां हुए हैं और उस दिशा में कुछ प्रयत्न किये जा रहे हैं।

इन विचारों में राष्ट्रवाद सबसे पुराना तथा बलशाली है। रोम के साम्राज्य के पतन के बाद तथा रोमन कैथोलिक चर्च के प्रति विद्रोह अथवा उसके प्रभाव में कमी के कारण यूरोप में राष्ट्रों का उदय हुआ। यूरोप का पिछले एक हजार वर्ष का इतिहास इन राष्ट्रों के आविर्भाव तथा पारस्परिक संघर्ष का ही इतिहास है। इन राष्ट्रों ने यूरोप महाद्वीप से बाहर जाकर अपने उपनिवेश बनाये तथा दूसरे स्वतंत्र देशों को गुलाम बनाया। राष्ट्रवाद के उदय के कारण राष्ट्र और राज्य की एकता की प्रवृत्ति भी बढ़ी तथा राष्ट्रीय राज्य (र्ऱ्ीूग्दर्हीत् र्एूीूो) का यूरोप में उदय हुआ। साथ ही रोमन कैथालिक चर्च के केन्द्रीय प्रभाव में कमी होकर या तो राष्ट्रीय चर्च का निर्माण हुआ या मजहब का। मजहबी गुरुओं का राजनीति में कोई विशेष स्थान नहीं रहा। सेक्यूलर स्टेट की कल्पना का इस प्रकार जन्म हुआ।

यूरोप में प्रजातंत्र का जन्म दूसरी क्रांतिकारी कल्पना प्रजातंत्र की है जिसका यूरोप की राजनीति पर महत्वपूर्ण प्रभाव हुआ है। प्रारंभ में तो जितने राष्ट्र बने उनमें राजा ही शासनकर्ता रहा। किंतु राजा की निरंकुशता के विरुद्ध जनता में भी धीरे-धीरे जागरण हुआ तथा औद्योगिक क्रांति के कारण तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के परिणामस्वरुप सभी देशों में एक वैश्य वर्ग का प्रादुर्भाव हुआ। स्वभावतः इनका पुराने सांमन्तों तथा राजाओं से संघर्ष हुआ। इस संघर्ष ने प्रजातंत्र की तात्विक भूमिका ग्रहण की। यूनान के नगर-गणराज्यों से इस विचारधारा का उद्‌गम ढूंढा गया। प्रत्येक नागरिक की समानता, बन्धुता और स्वतंत्रता के आदर्श के सहारे जनसाधारण को इस तत्व के प्रति आकृष्ट किया गया। प्रांस में बड़ी भारी राज्य क्रांति हुई। इंग्लैण्ड में भी समय-समय पर आन्दोलन हुए। लोकतंत्र की जनमन पर पकड़ हुई। राजवंश या तो समाप्त कर दिए गये अथवा उसके अधिकार मर्यादित कर वैधानिक राज्यपद्धति की नींव डाली गयी। आज लोकतंत्र यूरोप की मान्य पद्धति है। जिन्होंने लोकतंत्र की अवहेलना की, वे भी लोकतंत्र के प्रति निष्ठा व्यक्त करने में कमी नहीं करते। हिटलर, मुसोलिनी तथा स्टॉलिन जैसे तानाशाहों ने भी लोकतंत्र को अमान्य नहीं किया।

व्यक्ति का शोषण होता रहा लोकतंत्र ने यद्यपि प्रत्येक नागरिक को मतदान का अधिकार दिया, किंतु जिन लोगों ने प्रजातंत्र का नेतृत्व किया था, शक्ति उन्हीं के हाथों में रही। औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरुप उत्पादन की नयी पद्धति पर विश्वास हो गया था। स्वतंत्र रहकर घर में काम करने वाला श्रमिक अब कारखानेदार का नौकर बनकर काम करने लगा था। अपना गाँव छोडव़र वह नगरों मे आ बसा था। वहाँ उसके आवास की व्यवस्था बहुत अधूरी थी। कारखानों में जिस ढंग से काम होता था, उसके कोई नियम नहीं थे। मजदूर असंगठित एवं दुर्बल था। वह शोषण, अन्याय और उत्पीडऩ का शिकार हो गया था। राज्य की शक्ति जिनके हाथों में थी, वे भी उसी वर्ग में से थे जो उनका शोषण कर रहे थे। अतः राज्य से भी कोई आशा नहीं थी।
इस अन्यायपूर्ण अवस्था के विरुद्ध विद्रोह की तथा स्थिति में सुधार की भावना लेकर कई महापुरुष खड़े हुए। उन्होंने अपने आपको समाजवादी कहा। कार्ल मार्क्स भी इन समाजवादियों में से एक हैं। उसने विद्यमान अन्याय का विरोध करने के प्रयत्न में अर्थ-व्यवस्था तथा इतिहास का अध्ययन कर एक विश्लेषण प्रस्तुत किया। कार्ल मार्क्स की विवेचना के बाद समाजवाद एक वैज्ञानिक आधार पर खड़ा हो गया। बाद के समाजवादियों ने मार्क्स को माना हो या नहीं, किंतु उनके विचारों पर उसकी छाप अवश्य है।

सर्वहारा की तानाशाही

वैज्ञानिक समाजवाद के अनुसार उत्पादन के साधनों का व्यक्तिगत स्वामित्व ही शोषण की जड़ है। यदि इन साधनों को समाज (जो इनकी दृष्टि में राज्य ही है) के हाथों मेें दे दिया जाये तो शोषण समाप्त हो जायेगा। किंतु इसके पूर्व राज्य को शोषक वर्ग के चंगुल से निकालना होगा तथा यह व्यवस्था करनी होगी कि वह उनके अधीन कभी न रहे। इस हेतु प्रोलिटेरिएट डिक्टेटरशिप (र्ग्म्ूीूदीेप्ग्ज् दि ूप झ्ीदर्तूीीर्ग्ीूा) अर्थात्‌ सर्वहारा की तानाशाही स्थापित करनी होगी। समाज इस तानाशाही को सहन कर ले, इस हेतु उसके सामने यह आदर्श भी रखा गया कि शोषकों की समाप्ति तथा उनके द्वारा प्रतिक्रांति की सभी संभावनाओं के नष्ट होने के उपरांत राज्य की फिर आवश्यकता नहीं होगी। तब एक राज्यविहीन आदर्श समाज की उत्पत्ति होगी। कार्ल मार्क्स ने अर्थव्यवस्था का विवेचन कर यह भी बताया कि पूँजीवाद में ही उसके विनाश के बीज छिपे हुए हैं तथा समाजवाद अवश्यम्भावी है।
अनेक वादों से त्रस्तः कोई मार्ग नहीं।

यूूरोप के कुछ देशों में समाजवाद के नाम पर राजनीतिक क्रांतियाँ हुर्इं। जहाँ लोगों ने समाजवाद को स्वीकार नहीं किया, वहाँ भी राज्यकर्ताओं को श्रमिकों के अधिकारों को मान्य करना पड़ा तथा कल्याणकारी राज्य का आदर्श सामने रखा गया।

राष्ट्रवाद, प्रजातंत्र, समाजवाद या समता-समाज के मूल में समता का ही भाव है, समता समानता से भिन्न है, इसे िंर्ल्ग्िूींग्त्ग्ूब् का पर्याय मान सकते हैं। इन तीन प्रवृत्तियों ने यूरोप की राजनीति को प्रभावित किया है। ये सब ऐसे आदर्श हैं, जो अच्छे हैं। मानव की दैवी प्रवृत्तियों में से इनका जन्म हुआ है। किंतु अपने में कोई भी विचार पूर्ण नहीं। इतना ही नहीं, इनमें से प्रत्येक आदर्श, व्यवहार में एक दूसरे का घातक बन जाता है। राष्ट्रवाद विश्वशांति के लिए खतरा पैदा करता है। प्रजातंत्र पूँजीवाद के मेल से शोषण का कारण बन गया। पूँजीवाद को समाप्त कर समाजवाद आया तो उसने प्रजातंत्र तथा उसके साथ ही व्यक्ति की स्वतंत्रा की ही बलि ले ली। अतः आज पश्चिम के सामने यह प्रश्न खड़ा है कि इन सभी अच्छी बातों का तालमेल कैसे बैठाया जाए?

भिन्न समाजः भिन्न विचार

पश्चिम के लोग यह तालमेल नहीं बैठा पाये। हाँ, समय-समय पर वहाँ कुछ लोगों ने इन विचारों में से कुछ को महत्त्व देकर उनका गठजोड़ करने का अवश्य प्रयत्न किया है। इंग्लैण्ड ने प्रजातंत्र और राष्ट्रवाद का मेल बैठाकर अपना राजनीतिक ढाँचा विकासित किया, किंतु प्रांस यह काम नहीं कर पाया। वहाँ लोकतंत्र राष्ट्र के लिए अस्थिरता का कारण बन गया। ब्रिटेन की लेबर पार्टी समाजवाद और जनतंत्र का मेल बैठाकर चलना चाहती है। किंतु वहाँ ऐसे लोग हैं जो आशंका प्रकट कर रहे हैं कि यदि समाजवाद आया तो जनतंत्र नहीं रहेगा। लेबर पार्टी भी अब समाजवाद के नाम पर राष्ट्रीकरण की उतनी समर्थक नहीं रही जितना वैज्ञानिक समाजवाद चाहता है। उसका समाजवाद कुछ नरम हो गया है। हिटलर और मुसोलिनी ने “नेशनल सोशालिज्म” अपनाया। उन्होंने जनतंत्र को तिलांजलि दे दी। अन्त में सोशालिज्म भी उनके नेशनलिज्म का अनुचर बन गया तथा उनका राष्ट्रवाद विश्व के लिए संकट। निस्संदेह आज विश्व से हम कुछ लें, परन्तु विश्व ऐसी स्थिति में नहीं है कि हमारा कुछ मार्गदर्शन कर सके। वह तो स्वयं चौराहे पर है। ऐसी अवस्था में हम उससे किसी प्रकार का मार्गदर्शन नहीं पा सकते। हमें तो यह सोचना चाहिए कि अब तक की विश्व की प्रगति देखते हुए कहीं ऐसी भी संभावना है या नहीं कि हम उसकी प्रगति में अपना भी योगदान कर सकें? विश्व की प्रगति का अध्ययन कर लेने के बाद क्या हम भी उन्हें कुछ दे सकते हैं? यह विचार हमें विश्व का अंग बनकर करता चाहिए। हम केवल स्वार्थी न रहकर विश्व की प्रगति में सहयोगी बनें। यदि हमारे पास कोई ऐसी वस्तु है जिससे कि विश्व को लाभ होगा तो वह देने में हमें कोई आपत्ति नहीं हानी चाहिए। मिलावट के युग के अनुरुप विशुद्ध विचारों को विकृत करके उनका मिश्रित रुप न लें बल्कि उनको सुधार कर तथा मंथन करके उन्हें ग्रहण करना चाहिए। हमें विश्व पर बोझ बनकर नहीं, उसकी समस्याओं के छुटकारे में सहायक बनकर रहना चाहिए। हमारी परम्परा और संस्कृति विश्व को क्या दे सकती है, यह हमें विचार करना है।

अभ्युदय वात्सल्यम डेस्क