स्वामी विवेकानंद की आत्मकथा मेरा बचपन

सन्यासी का जन्म बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय के लिए होता है। दूसरों के लिए प्राण देने, जीवों के गगनभेदी क्रंदन का निवारण करने, विधवाओं के आँसू पोंछने, पुत्र-वियोग-विधुरों के प्राणों को शांति प्रदान करने, अज्ञ – अधम लोगों को जीवन-संग्राम के उपयोगी बनाने, शास्त्रोपदेश-विस्तार के द्वारा सभी लोगों के ऐहिक-परमार्थिक मंगल करने और ज्ञानालोक द्वारा सबमें प्रस्तुत ब्रम्हा-सिंह को जाग्रत करने के लिए ही संन्यासियों का जन्म हुआ है।
“आत्मनो मोक्षार्थ जगध्दिताय च हमारा जन्म हुआ है।”

मेरे जन्म के लिए मेरे पिता-माता ने साल-दर-साल कितनी पूजा-अर्चना और उपवास किया था। मैं जानता हूँ, मेरे जन्म से पहले मेरी माँ व्रत-उपवास किया करती थीं, प्रार्थना किया करती थीं और भी हजारों ऐसे कार्य किया करती थीं, जो मैं पाँच मिनट भी नहीं कर सकता। दो वर्षों तक उन्होंने यही सब किया। मुझमें जितनी भी धार्मिक संस्कृति मौजूद है, उसके लिए मैं अपनी मां का कृतज्ञ हूं। आज मैं जो बना हूं, उसके लिए मेरी मां ही मुझे सचेतन इस धरती पर लाई हैं। मुझमें जितना भी आवेश मौजूद है, वह मेरी माँ का ही दान है और यह सारा कुछ सचतेन भाव से है, इसमें बूँद भर भी अचेतन भाव नहीं है।

मेरी माँ ने मुझे जो प्यार-ममता दी है, उसी के बल पर ही मेरे वर्तमान के “मैं” की सृष्टि हुई है। उनका यह कर्ज मैं किसी दिन भी चुका नहीं पाऊँगा।
जाने कितनी ही बार मैंने देखा है कि मेरे माँ सुबह का आहार दोपहर दो बजे ग्रहण करती हैं। हम सब सुबह दस बजे खाते थे और वे दोपहर दो बजे । इस बीच उन्हें हजारों काम करने पडत़े थे। यथा, कोई आकर दरवाजा खटखटाया- अतिथि! उधर मेरी माँ के आहार के अलावा रसोई में और कोई आहार नहीं होता था। वे स्वेच्छा से अपना आहार अतिथि को दे देती थीं। बाद में अपने लिए कुछ जुटा लेने की कोशिश करती थीं। ऐसा था उनका दैनिक जीवन और यह उन्हें पसंद भी था। इसी से हम सब माताओं की देवी-रुप में पूजा करते हैं।

मुझे भी एक ऐसी ही घटना याद है। जब मैं दो वर्ष का था, अपने सईस के साथ कौपीनधारी वैरागी बनाकर खेला करता था। अगर कोई साधु भीख माँगता हुआ आ जाता था तो घरवाले ऊपरवाले कमरे में ले जाकर मुझे बंद कर देते थे और बाहर से दरवाजे की कुंडी लगा देते थे। वे लोग इस डर से मुझे कमरे में बंद कर देते थे कि कहीं मैं उसे बहुत कुछ न दे डालूँ।

मैं भी मन-प्राण से महसूस करता था, मैं भी इसी तरह साधु था। किसी अपराधवश भगवान्‌ शिव के सामीप्य से विताडित़ कर दिया गया। वैसे मेरे घर वालों ने भी मेरी इस धारणा को और पुख्ता कर दिया था। जब कभी मैं कोई शरारत करता, वे लोग कह उठते थे-“हाय, हाय! इतना जप-तप करने के बाद अंत में शिवजी ने कोई पुण्यात्मा भेजने के बजाय हमारे पास इस भूत को भेज दिया।” या जब मैं बहुत ज्यादा हुड़दंग मचाता था, वे लोग शिव! शिव” का जाप करते हुए मेरे सिर पर बाल्टी भर पानी उड़ेल देते थे। मैं तत्काल शांत हो जाता था। कभी इसकी अन्यथा नहीं होती थी। आज भी जब मेरे में कोई शरारत जागती है, यह बात मुझे याद जाती है और मैं उसी पल शांत हो जाता हूँ। मैं मन-ही-मन बुदबुदा उठता हूँ-“ना,ना ! अब और नहीं !”
बचपन में जब मैं स्कूल में पढत़ा था, तब एक सहपाठी के साथ जाने किस मिठाई को लेकर छीना-झपटी हो गई। उसके बदन में मुझसे ज्यादा ताकत थी, इसलिए उसने वह मिठाई मेरे हाथों से छीन ली। उस वक्त मेरे जो मनोभाव थे, वह मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ। मुझे लगा कि उस जैसा दुष्ट लडव़ा दुनिया में अब तक कोई पैदा ही नहीं हुआ। जब मैं बड़ा हो जाऊँगा, मुझमें बहुत ज्यादा ताकत भर जाएगी, तब मैं उसको सबक सिखाऊँगा, उसे हरा दूँगा।
मैंने सोचा कि वह इतना दुष्ट है कि उसके लिए कोई भी सजा काफी नहीं होगी। उसे तो फाँसी दे देनी चाहिए। उसके तो टकड़े-टुकड़े कर देना चह़िए। यथासमय हम दोनों ही बड़े हुए, और हम दोनों में अब काफी घनिष्ठ दोस्ती है। इस तरह समग्र विश्व शिशुतुल्य इंसानों से भरा पड़ा है- खाना और उपयोगी खाना ही उन लोगों के लिए सर्वस्व है। इससे जरा भी इधर-उधर हुआ नहीं कि सर्वनाश! उन जैसे लोग सिर्फ अच्छी मिठाइयों के सपने देखते हैं और भविष्य के बारे में उन लोगों की यही धारणा है कि हमेशा, हर कहीं प्रचुर मिठाइयाँ मौजूद रहेंगी। रायपुर जाते हुए जंगल के बीच से गुजरते हुए मैंने देखा था और महसूस भी किया था। एक बेहद खास घटना मेरी यादों कें चित्रपट पर हमेशा अंकित हो गई। उस दिन हमें पैदल चलते-चलते विंध्य पर्वत के नीचे गुजरना पड़ा था।

रास्ते के दोनों तरफ के पर्वत-श्रृंग आसमान छूते हुए खड़े थे ! तरह-तरह के सैक़ड़ों पेड़, लताएँ, फल-फूलों के समारोह-से झुके पर्वत-पृष्ठ की शोभा बढ़ा रहे थे, अपने मधुर कलरव से दिशा-दिशाओं को गुँजाते हुए सैकड़ों रंग-बिरंगे पंछी कुंज-कुंज में फुदक-फुदकर आ-जा रहे थे या आहार खोजते हुए कभी-कभी धरती पर अवतरण कर रहे थे। वह समस्त दृश्य देखते-देखते मन-ही-मन मैं अपूर्व शांति महसूस कर रहा था। धीर-मंथर चाल में चलती हुई बैलगाडिय़ां धीीरे-धीरे एक ऐसी जगह उपस्थित हुर्इं, जहाँ दो पर्वत-श्रृंग मानो प्रेम में आकृष्ट होकर शीर्ण वनपथ को बंद किए दे रहे थे। उस मिलन-बिंदु को विशेष भाव से निरखते हुए मैंने देखा, एक तरफ के पर्वत-गात पर बिलकुल तलहटी तक एक विशाल दरार मौजूद हैं और उस दरार में मधुमक्खियों के युग-युगांतरों के परिश्रम के निदर्शन स्वरूप एक प्रकांड आकार का छत्ता झूल रहा था। मैं परम विस्मय-विमुग्ध होकर मधुमक्खियों के साम्राज्य के आदि-अंत के बारे में सोचते-सोचते त्रिलोक नियंता ईश्वर की अनंत शक्ति की उपलब्धि में मेरा मन कुछ इस तरह से डूब गया कि कुछेक पलों के लिए बाहरी संज्ञा मानो लुप्त हो गई। कितनी देर तक मैं उन्हीं खयालों में डूबा बैलगाडी में पड़ा रहा, मुझे याद नहीं। जब चेतना लौटी तो मैंने देखा कि वह जगह पार करके मैं काफी दूर आ गया हूँ। चूँकि बैलगाड़ी में मैं अकेला ही था, इसलिए इस बारे में कोई जान नहीं पाया।

वैसे इस जगत में यथेष्ट दुःख भी विद्यमान है, हम बात से भी इनकार नहीं कर सकते। अस्तु, हम सब जितना भी काम करते हैं, उसमें दूसरों की सहायता करना ही सबसे भला काम है। अंत में हम यही देखेंगे कि दूसरों की सहायता करने का अर्थ है अपना ही उपकार करना। बचपन में मेरे पास कुछ सफेद चूहे थे। वे सब एक छोटी सी पेटिका में जमा थे। उस पेटिका में छोटे-छोटे पहिए घूमने लगते थे, बस चूहे आगे नहीं बढ़ पाते थे। यह जगत्‌ और उसकी सहायता करना भी बिलकुल ऐसा ही है। इससे उपकार यह होता है कि हमें कुछ नैतिक शिक्षा मिल जाती है।

जब मेरे शिक्षक घर आते थे तो मैं अपनी अंग्रेजी, बँगला की पाठ्य-पुस्तकें उनके सामने लाकर रख देता था। किस किताब से, कहाँ-से-कहाँ तक रट्टा लगाना होगा, यह उन्हें दिखा देता था। उसके बाद अपने खयालों में डूबा लेटा रहता था या बैठा रहता था। मास्टर साहब मानो खुद ही पाठ्याभ्यास कर रहे हों,इसी मुद्रा में वे उन किताबों के उन पृष्ठों के शब्दों की बनावट, उच्चारण और अर्थ वगैरह की दो-तीन बार आवृत्ति करते और चले जाते। बस, इतने से ही मुझे वे सब विषय याद हो जाते थे।

प्राइमरी स्कूल में थोड़ी-बहुत गणित, कुछ संस्कृत-व्याकरण, थोड़ी सी भाषा और हिस़ाब की शिक्षा दी जाती थी। बचपन में एक बूढ़े सज्जन ने हमें नीति के बारे में एक छोटी सी किताब बिलकुल रटा डाली थी। उस कित़ाब का एक श्लोक मुझे अभी भी याद है- “गाँव के लिए परिवार, स्वदेश के लिए गाँव, मानवता के लिए स्वदेश और जगत्‌ के लिए सर्वस्व त्याग कर देना चाहिए।” उस किताब में ऐसे ढेरों श्लोक थे। हम सब वे सभी श्लोक रट लेते थे और शिक्षक उनकी व्याख्या कर देते थे। बाद में छात्र भी उनकी व्याख्या करते थे।

जो कविता स्कूल में हमें शुरू – शुरू में सिखाई गई, वह थी-“जो मनुष्य सकल नारियों में अपनी माँ को देखता है, सकल मनुष्योें की विषय-संपत्ति को धूल के ढेर समान देखता है, जो समग्र प्राणियों में अपने आत्मा को देख पाता है, वही प्रकृत ज्ञानी होता है।”
कलकत्ता में स्कूल में पढ़ाई के समय से मेरी प्रवृत़ि धर्म-प्रवण थी। लेकिन सभी चीजों की तत्काल जाँच-परख कर लेना स्वभाव था, सिर्फ बातचीत से मुझे तृप्ति नहीं होती थी।

सोने के लिए आँखें मूँदते वक्त मुझे अपनी भौंहों के बीच एक अपूर्व ज्योतिर्बिंदु दिखाई देती थी और अपने मन में तरह-तरह के परिवर्तन भी महसूस करता था। देखने में सुविधा के लिए, इसलिए लोग जिस मुद्रा में जमीन पर मत्था टेककर प्रणाम करते हैं, मैं उसी तरह शयन करता था। वह अपूर्व बिंदु तरह-तरह के रंग बदलते हुए और दीर्घतर आकार में बढत़े-बढत़े धीरे-धीरे बिंब के आकर में परिणत हो जाती और अंत में एक विस्फोट होता था तथा आपादमस्तक शुभ-तरल ज्योति मुझे आवृत कर लेती थी। ऐसा होते ही मेरी चेतना लुप्त हो जाती थी और मैं निद्राभिभूत हो जाता था।

यह धारणा मेरे मन में घर कर गई थी कि सभी लोग इसी तरह सोते हैं। दीर्घ समय तक मुझे यही गलतफहमी थी। बड़े होने के बाद, जब मैंने ध्यान-अभ्यास शुरू किया, तब आँखें मूँदते ही सबके पहले वही ज्योतिर्बिंदु मेरे सामने उभर आती और मैंने चंद हम उम्र साथियों के साथ नित्य-ध्यान-अभ्यास शुरु किया, तब ध्यान में किसे, किस प्रकार का दर्शन और उपलब्धि होती है, इस बारे में हम आपस में बातचीत भी करते थे। उन दिनों उनकी बातें सुनकर मैं समझ गया कि उस प्रकार का ज्योति-दर्शन उनमें से किसी को नहीं हुआ उनमें से कोई भी औंधे मुँह नहीं सोता था। बचपन में मै अतिशय हुड़दंगी और खुराफाती था, वरना साथ में कानी कौड़ी ़िलए बिना मैं समूची दुनिया की यूँ सैर कर पाता?

जब मैं स्कूल पढत़ा था, तभी एक रात कमरे का दरवाजा बंद करके ध्यान करते-करते एकदम से तल्लीन हो गया। कितनी देर तक मैं उस तरह बेसुध ध्यान में लीन रहा, बता नहीं सकता। ध्यान हुआ, फिर भी उसी मुद्रा में बैठा रहा। ऐसे में कमरे की दक्षिणी दीवार भेदकर ज्योतिर्मय मूर्ति प्रकट हुई और मेरे सामने आ खड़ी हुई। उनके चेहरे पर अद्‌भुत कांति झलक रही थी, फिर भी मानो कोई भाव न हो। महाशांत सन्यासी मूर्ति-मुंडित मस्तक, हाथ में दंड और कमंडलु ! कुछ देर वे मेरी तरफ एकटक देखते रहे। उस समय उनके चेहरे पर ऐसा भाव था, मानो वे मुझसे कुछ कहना चाहते हों। मैं भी अवाव्‌ दृष्टि से उनको निहारता रहा। अगले ही पल मन मानो किसी खौफ से भर उठा। मैंने जल्दी से दरवाजा खोला और कमरे से बाहर निकल आया। बाद में खेद हुआ कि मूर्खों की तरह डरकर मैं भाग क्यों खड़ा हुआ। वे शायद मुझसे कुछ कहते। लेकिन उस रात के बाद उस मूर्ति के कभी दर्शन नहीं हुऐ। कई बार मेरे मन ने कहा कि अगर दुबारा उस मूर्ति के दर्शन हुए तो मैं डरूंगा नहीं, उनसे बात करूंगा। लेकिन फिर कभी वह मूर्ति नजर नहीं आई। मैंने भगवान्‌ बुध्द के दर्शन किए थे। बचपन से ही जब भी कहीं कोई व्यक्ति, वस्तु या जगह देखता, मुझे ऐसा लगता था जैसे मैंने वह सब पहले भी कहीं देखा है, लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी याद नहीं पडत़ा था क़ि कहाँ देखा है।

कहीं अपने मित्रों से किसी विषय पर बातचीत करते हुए अचानक ही कोई मित्र कोई ऐसा जुमला बोल जाता था। जिसे सुनकर मुझे लगता था कि इसी कमरे में, इन्हीं सब लोगों से पहले भी मेरी बातचीत हुई है और उस वक्त भी इस व्यक्ति ने यही वाक्य कहा था। लेकिन दिमाग पर काफी जोर देने के बाद भी यह तय नहीं कर पाता था कि इसकी वजह क्या थी ! बाद में पुनर्जन्मवाद की जानकारी हुई तो मुझे यह खयाल आया कि ये सब घटनाएँ शायद मेरे पिछले जन्म में घटी थीं और वही सब सांसारिक स्मृतियाँ कभी-कभी इस जन्म में भी मेरे मन में ताक-झाँक करती हैं। लेकिन उसके भी बहुत बाद, यह समझ में आया है कि इन सब अनुभवों की ऐसी व्याख्या युक्तिसंगत नहीं है। अब लगता है कि इस जन्म में मुझे जिन-जिन लोगों या विषयों से परिचित होना था, उन्हें अपने जन्म से पहले ही चित्र-परंपरा मुताबिक मैंने किसी तरह देख लिया था और इस धरती पर भूमिष्ठा होने के बाद वही सब स्मृतियाँ समय-समय पर मेरे मन झाँकने लगती हैं।

एंट्रेंस की परीक्षा के दो-तीन दिन पहले की बात है। मैंने देखा कि ज्योमेट्री में मैंने कुछ भी नहीं पढ़ा-सीखा है। तब मैं रात भर जानकर पढत़ा रहा और चौबीस घंटों के अंदर मैंने ज्योमेट्री की किताब के चार खंड पढ़ डाले और याद भी कर लिया।

मैंने बारह वर्षों तक कठोर अध्ययन किया और कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी. ए. पास कर लिया।

छात्र जीवन में ही ऐसी आदत पड़ गई थी कि किसी भी लेखक की कृति की पंक्ति-पंक्ति न पढऩे के बावजूद मैं समझ लेता था। हर पैराग्राफ की पहली और अंत़िम पक्ति पढव़र मैं उसका भाव समझ लेता था। यह आदत जब धीरे-धीरे और बढ़ गई तब पैराग्राफ पढऩे की भी जरुरत नहीं होती थी। हर पृष्ठ की पहली और अंत़िम पंक्ति पढव़र ही सारा कुछ समझ लेता था। जहाँ कहीं कोई विषय समझाने के लिए लेखक चार-पाँच या अधिक पृष्ठों में विस्तार से बताता था, वहाँ शुरू की कुछेक बातें पढव़र ही मैं पूरा विषय समझ लेता था।

यौवन में पदार्पण करने तक हर रात बिस्तर पर लेटते ही मेरी नजरों के सामने दो दृश्य उभर कर आते थे। एक दृश्य में मैं देखता था कि मैंने अशेष धन-जन-संपदा और ऐश्वर्य अर्जित कर लिया है। दुनिया में जिन लोगों को धनी आदमी कहते हैं, मैंने उनमें शीर्ष स्थान प्राप्त किया है। मुझे लगता था कि मुझसे सच ही धनी आदमी बनने जैसी ताकत मौजूद है। अगले ही पल मैं देखता था कि दुनिया की तमाम चीजें त्यागकर एकमात्र प्रभु-इच्छा पर निर्भर करते हुए कौपीनधारी मैं अपनी मन-मरजी का भोजन करता हूँ और किसी पेड़ तले रात गुजारता हूँ। मुझे ऐसा महसूस होता था कि अगर मैं चाहूँ, तो इसी तरह ऋषि-मुनियों जैसा जीवन व्यतीत करने में समर्थ हूँ। इस प्रकार दो-दो ढंग का जीवन यापन करने की छवि मेरी कल्पना में उदित होती थी और अंत में, दूसरी वाली छवि मेरे मन पर अधिकार कर लेती थी। मैं सोचता था कि इन्सान इसी तरह परमानंद-लाभ कर सकता है। मैं भी ऐसा ही बनूँगा। उस वक्त इस जीवन के सुखों के बारे में सोचते-सोचते मैं ईश्वर-आराधना में निमग्न हो जाता था और सो जाता था। आश्चर्य की बात यह है कि ऐसा अनुभव मुझे काफी दिनों तक होता रहा।

यह झूठ बोलने जैसा होगा, यह सोचकर मैंने लडव़ों को कभी जू-जू का भय नहीं दिखाया और अपने घर में किसी को ऐसा काम करते हुए देखता तो उसे काफी डाँटता था। अंग्रेजी पढऩे और ब्राह्मण समाज में आने-जाने के कारण मेरी वाणी की निष्ठा काफी बढ़ गई थी।

वर्तमान (१९ वीं शताब्दी) युग के प्रारंभ में बहुतेरे लोगों ने यह आशंका जाहिर की थी कि इस बार धर्म का ध्वंस होना अवश्यंभावी है। वैज्ञानिक गवेषणाओं के तीव्र आघात से पुराने कुसंस्कार चीनी-मिट्टी के बर्तनों की तरह चूर-चूर होते जा रहे थे। जो लोग धर्म को केवल मतवाद और अर्थशून्य कार्य समझ रहे थे, वे लोग किंकर्तव्यविमूढ़ हो उठे। पकड़े रहने जैसा उन लोगों को कुछ भी नहीं मिल रहा था। एक वक्त तो ऐसा भी लगा कि जडव़ाद और अज्ञेयवाद की उत्ताल तरंगें राह में आई हुई सभी चीजें, सारा कुछ अपने तेज प्रवाह में बहा ले जाएँगी। बचपन की उम्र में इस नास्तिकता का प्रभाव मुझ पर भी पड़ा था और एक वक्त ऐसा भी आया, जब मुझे लगा कि मुझे भी धर्म का सारा आसरा-भरोसा त्याग देना होगा। लेकिन शुक्र है कि मैंने ईसाई, मुसलमान, बौद्ध वगैरह धर्मों का अध्ययन किया और यह देखकर चकित रह गया कि हमारा धर्म जिन सब मूल तत्वों की शिक्षा देता है, अन्यान्य धर्म हूबहू वही शिक्षा देता है। उस समय मेरे मन में प्रश्न जाग उठा तो फिर सत्य क्या है?

जब मैं बालक था, इसी कलकत्ता शहर में सत्य की खोज में मैं यहाँ–वहाँ घूमता था और लंबे–लंबे भाषण सुनकर मैं वक्ता से सवाल करता था, आपने क्या ईश्वर के दर्शन किए हैं? ईश्वर दर्शन के सवाल पर बहुतेरे वक्ता चौंक उठते थे। एकमात्र श्रीरामकृष्ण परमहंस ने ही मुझे जवाब दिया था, मैंने ईश्वर दर्शन किए हैं। सिर्फ इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा था, मैं तुम्हें भी उनके दर्शन-लाभ की राह दिखा दूँगा।”

अभ्युदय वात्सल्यम डेस्क