भाजपा चाहती है कि लोकसभा चुनावों में उच्च विकास दर के साथ प्रवेश करे

चुनावों से पहले आर्थिक सुधारों की उम्मीद करना बेमानी माना जाता है। पांच राज्यों में होने जा रहे चुनावों से ठीक पहले आने वाले इस बजट से भी वैसी कोई उम्मीद नहीं लगाई जा रही थी। लेकिन सभी यह देखकर चकित रह गए कि बजट चाहे जो हो, लोकलुभावन नहीं था। मुफ्त के उपहार बांटने के बजाय इसने महामारी के बाद रिकवरी और उच्च विकास का एक रोडमैप सामने रखा। अलबत्ता बजट में बड़े सुधारों की घोषणा नहीं की गई, लेकिन इसका फोकस निवेश और रोजगार-निर्माण पर था, इसमें सुधारों की दिशा में कदम उठाए गए थे और पिछले बजट में की गई अच्छी पहल पर आगे बढ़ने की तैयारी दिखाई गई थी। अनेक भाजपा समर्थक भी इस बजट से हैरान रह गए। यूपी के भाजपा नेताओं ने निजी चर्चाओं में हताश होकर कहा कि इससे उनके राजनीतिक कॅरियर का अंत भी हो सकता है।

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लेकिन वे इसके पीछे की सियासी रणनीति समझने से चूक गए। भाजपा मानती है कि वह इन राज्यों में कम अंतर से ही सही, लेकिन जीत दर्ज करने में सफल रहेगी, लेकिन उसका मुख्य फोकस 2024 पर है। भाजपा चाहती है कि वह 2024 के चुनावों में तेज गति से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था के साथ प्रवेश करे, जिसमें बड़े पैमाने पर नौकरियों के अवसर निर्मित हो रहे हों। साथ ही वह लोककल्याण की अपनी नई परिभाषा पर भी डिलीवर करती रहे- यानी पानी वाले नलों, किफायती घरों, रसोई गैस, शौचालय और पोस्ट ऑफिस के माध्यम से मोबाइल बैंकिंग जैसी सुविधाओं के जरिए ग्रामीण जीवन की सुधरी हुई दशा। बजट से विपक्ष भी गफलत में पड़ा। बजट की डिजिटल थीम की आलोचना करके उसने स्वयं की भद ही पिटवाई।

जबकि यही भारत को चौथी वैश्विक क्रांति के उच्च-विकास के क्षेत्रों- जैसे ग्रीन एनर्जी, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और नई तकनीकों- की ओर ले जाएगा। इससे सौ साल पुरानी वह बात याद आ गई, जब पहले-पहल कारें सड़कों पर अवतरित हुई थीं तो अमेरिकियों ने यह कहकर सरकार की आलोचना की थी कि वह घोड़ों और बग्घियों की सुरक्षा करने में विफल साबित हो रही है!

आर्थिक मंदी से जूझने के दो रास्ते होते हैं। एक है उपभोग का निर्माण, और दूसरा है निवेश। पहले से उपभोक्ताओं की जेबों में पैसा पहुंचता है, जैसे कांग्रेस की न्याय योजना या भाजपा की पीएम किसान योजना। इससे लोग चीजें खरीदते हैं, फैक्टरियां चलती हैं और रोजगारों का सृजन होता है। दूसरा तरीका है बुनियादी ढांचे में निवेश- जैसे सड़कें, बंदरगाह, पाइपलाइंस, घर, अस्पताल आदि।

इससे रोजगार निर्माण तो होता ही है, साथ ही निजी निवेश को भी प्रोत्साहन मिलता है, जिससे और नौकरियों के अवसर बनते हैं। बजट ने दूसरा रास्ता चुना है। इसके परिणाम तुरंत दिखलाई नहीं देते, इसमें थोड़ा समय लगता है, और राजनीतिक जोखिम तो होता ही है। लेकिन यह निश्चित ही बेहतर रास्ता है। यह साफ है कि आज देश की पहली जरूरत रोजगार ही हैं, जिन्हें मुहैया कराने में यह सरकार अभी तक नाकाम रही है। उत्पादक नौकरियों (पकौड़े वाली नहीं) से ही अच्छे दिन आ सकते हैं। हाउसिंग और हॉस्पिटैलिटी जैसे सेक्टरों के लिए इस बजट में दिए गए पैकेज से मदद मिलेगी, लेकिन छोटे व मंझोले उद्यमियों को इससे भी ज्यादा दिया जा सकता था, क्योंकि सबसे ज्यादा नौकरियों के अवसर वे ही रचते हैं। वित्त मंत्री को बैंकों से पूछना चाहिए कि वे छोटे और मंझोले उद्यमों को ऋण क्यों नहीं दे रहे हैं। बजट में अगर कोई छूटी हुई कड़ी है तो वह है निर्यात।

आज तक किसी भी देश ने गरीबी से मध्यवर्ग तक का सफर बड़े निर्यातों के बिना तय नहीं किया है। सुदूर-पूर्व के देश इसी तरह आगे बढ़े हैं, जिनमें ताजातरीन उदाहरण चीन का है। बीते साल में निर्यात अच्छे रहे थे, लेकिन बजट इम्पोर्ट ड्यूटी बढ़ाने के हानिकर ट्रेंड को बदल नहीं पाया। इम्पोर्ट ड्यूटी की ऊंची दरों को समाप्त किए बिना भारत कभी भी ग्लोबल सप्लाई चेन का हिस्सा नहीं बन सकेगा। और यही वह चेन है, जिसमें विश्वस्तरीय नौकरियां सृजित करने की सबसे बड़ी क्षमता है। बजट की यह कहकर आलोचना की जा रही है कि इसमें गरीबों के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया गया, जो पहले महामारी और अब महंगाई की मार झेल रहे हैं। ये सच है कि खाद्य पदार्थों के लिए आवंटन और मनरेगा में कटौती की गई है। लेकिन बजट यह मानकर चला है कि महामारी अब समाप्त होने जा रही है और भविष्य में लॉकडाउनों की जरूरत नहीं पड़ेगी।

साथ ही बजट का यह भी मानना है कि तेल की कीमतें- जो महंगाई का महत्वपूर्ण कारण हैं- जल्द ही घटेंगी। वित्त मंत्री ने बढ़ती विषमता के शोरगुल को नजरअंदाज कर उत्पादक नौकरियों पर ध्यान केंद्रित करके ठीक ही किया है। आज भारत विकास के जिस सोपान पर है, वहां उसे अवसरों की अधिक चिंता करनी चाहिए, विषमता की नहीं। जब तक गरीबों के लिए बुनियादी सेफ्टी-नेट है, जैसे फूड ट्रांसफर और मनरेगा नौकरियां- तब तक सभी का उन्नयन करके उन्हें मध्य-वर्ग में लाने के लिए नौकरियों और विकास पर ही फोकस करना चाहिए।

विषमता का सामना करने का भी यही सबसे अच्छा तरीका है। सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य और गरीबी पर तभी खर्च कर सकेगी, जब उच्च विकास से उसका खजाना भरेगा। इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि इससे कुछ लोग अरबपति बन जाएंगे? याद रखें अगर पूंजीवाद की सबसे बड़ी बुराई लालच है तो समाजवाद का सबसे बड़ा पाप है ईर्ष्या। समझदार लोग लालच को ईर्ष्या और अवसर को असमानता से बेहतर समझते हैं।


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लेखक एवं एयर इंडिया के पूर्व निदेशक)

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

गुरचरण दास