नरेन्द्र मोदी कालजयी राजनीतिक जीवन यात्रा

मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यों को ‘गुजरात मॉडल” के रूप में प्रस्तुत कर लगातार दो लोकसभा चुनाव जीतने वाले नरेंद्र मोदी लगभग अजेय रहे हैं। भारतीय राजनीति के संदर्भ में यह किसी अचरज से कम नहीं है। एक साधारण कार्यकर्ता से देश के सर्वोच्च नेता की यात्रा प्रेरक भी है और राजनीतिज्ञों के लिए गुत्थी उलझाने वाला भी।

वर्तमान के चश्मे से देखें तो नरेन्द्र मोदी एक चमत्कार की तरह दिखते हैं। इनका व्यक्तित्व कुछ इस तरह उभरता है कि जिनके लिए सब कुछ बहुत आसान हो- चुनाव जीतना और देश के लिए विषय तय करना, जो जनता से जु़डने का हुनर रखता है और विपक्ष को पटखनी देने की क्षमता भी। एक लंबी और सफल राजनीतिक विरासत जब मूर्त रूप लेती है तो ऐसी शख्सियत निर्मित होती है। हालाँकि, आज के इस जादू से थो़डी दूर हटें तो नरेन्द्र मोदी की शुरुआत भी बहुत साधारण थी। खासकर, जिस विपक्ष से उनकी प्रतिस्पर्धा थी/है उसकी तुलना में नरेन्द्र मोदी के पास कुछ भी नहीं था। आइये, एकदम संक्षेप में उस घटनाक्रम को जानते हैं कि ”कुछ नहीं से सब कुछह्ण की यह यात्रा कैसी रही।

आजादी के तीन बरस बीत चुके थे, जब १७ सितम्बर को नरेन्द्र मोदी का जन्म औद्यौगिक राज्य गुजरात में हुआ। जगह थी वडनगर। एक बेहद साधारण पारिवारिक फष्ठभूमि में नरेन्द्र मोदी का लालन-पालन हुआ और यही वजह है कि संघर्षों के सहारे एक बेहतर जीवन बुनने की उनकी जिजीविषा उनके व्यक्तित्व का सबसे मजबूत अंग बन गयी। कालांतर में उनकी रुचि राजनीति में ब़ढी और वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जु़ड गए। यह संयोग ७० के दशक में कभी घटित हुआ था। आने वाले कुछ वर्षों में भाजपा का भी गठन होना था और नरेंद्र मोदी का राजनीतिक सफर भाजपा तक आ पहुँचा। पहले गुजरात राज्य में संगठन को मजबूत करने, राज्य में चुनाव जिताकर सरकार बनाने में भूमिका निभाने और फिर केंद्रीय संगठन में आने की एक उत्तरोत्तर ब़ढती राजनीतिक हैसियत के साथ मोदी अपना कद ऊँचा करते गए। और फिर २१वीं सदी की शुरुआत में ही वो एक विभाजक समय भी आ गया, जिसने मोदी, भाजपा और भारतीय राजनीति का भाग्य उसी समय तय कर दिया। नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री चुने गए। मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यों को ‘गुजरात मॉडल” के रूप में प्रस्तुत कर लगातार दो लोकसभा चुनाव जीतने वाले नरेंद्र मोदी लगभग अजेय रहे हैं। अगर, प्रत्यक्ष नेतÀत्व की बात करें तो वो अजेय ही रहे हैं। भारतीय राजनीति के संदर्भ में यह किसी अचरज से कम नहीं है। एक साधारण कार्यकर्ता से देश के सर्वोच्च नेता की यात्रा प्रेरक भी है और राजनीतिज्ञों के लिए गुत्थी उलझाने वाला भी। बहरहाल, अब यह देखना अधिक रोचक होगा कि आखिर नरेंद्र मोदी की यह यात्रा कैसे संभव हो सकी? वो कौन से कारक हैं जो इन्हें अपने प्रतिस्पर्धी नेताओं से अलग बनाते हैं?

वैचारिक स्पष्टता

नरेंद्र मोदी के नरेंद्र मोदी होने में जो एक बात बुनियादी रूप से कही जा सकती है वो है वैचारिक स्पष्टता। राजनीतिक विचार हो या सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा या फिर आर्थिक नीति, नरेंद्र मोदी शुरू से ही काफी स्पष्ट रहे हैं। और यही वजह है कि वो पूरे आत्मविश्वास से जनता से जु़डे और उनसे अपने लिए समर्थन मांगा। और, यह वैचारिक स्पष्टता क्या है?

सबसे पहले सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा के प्रश्न को देखते हैं। भारतीय राजनीति में भी संस्कृति के रोचक उपयोग होते रहे हैं, जिनमें सबसे सफल प्रयोग ”सांप्रदायिकता-सेकुलरवादह्ण का है। धर्म के ही उपयोग पर ही दोनों प्रकार की राजनीति टिकी रही, लेकिन एक को सेकुलरवाद कहा गया और दूसरे को सांप्रदायिकता। यहाँ इस बात को ध्यान से समझने की आवश्यकता है कि इन दोनों ही विचारों के व्यावहारिक (चुनावी) अनुप्रयोग इनकी सैद्धांतिक निर्मिति से एकदम अलग है। वस्तुतः, भारत में परस्पर विरोधी सांस्कृतिक मूल्यों के कारण पैदा हुई नैतिक असहमतियों का राजनीतिक हल खोजने की कभी कोशिश नहीं हुई। विविधता के नष्ट हो जाने के डर या बहुसंख्यक संस्कृति के हावी हो जाने के भय से यहाँ सामाजिक  एकीकरण पर बहुत ध्यान नहीं दिया गया तथा सार्वभौम नागरिक निर्माण की परियोजना अधूरी ही रह गई। इसके अलावा वैविध्य बनाए रखने के लिए राज्य की तरफ से जो प्रयास हुए उसका एक संदेश यह भी गया कि जानबूझकर बहुसंख्यक की धार्मिक पहचान को बेअसर करने की कोशिश हुई और अल्पसंख्यक को अपनी पहचान धार्मिक रूप से ग़ढने के लिए न केवल छूट दी गई बल्कि प्रोत्साहित भी किया गया। इसी आधार पर हो रही राजनीति को नरेन्द्र मोदी ने बदला और पूरी निर्भीकता से खुद को उस खेमे में प्रस्तुत किया जिसे ‘सांप्रदायिक” कहने का चलन है। यानी हिंदू धर्म के प्रति निष्ठा रखना, उसके प्रतीकों को सम्मान देना, इस समुदाय के आग्रह को राष्ट्रीय विषय बनाना आदि। अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास से लेकर कश्मीर से अनुच्छेद-३७० को प्रभावशून्य करने तक की यह यात्रा बहुत स्पष्ट रही है।

वैचारिक स्पष्टता का दूसरा पक्ष राजनीतिक-आर्थिक है। यह स्पष्टता और बेहतर ढंग से उभर सके इसलिए पहले इनकी प्रतिद्वंद्वी वर्तमान कांग्रेस का नजरिया देख लेते हैं। कांग्रेस कभी नेहरू -इंदिरा के समाजवाद के प्रति मोह दर्शाती है तो कभी राव- मनमोहन के पूंजीवाद के लाभ का श्रेय लेना चाहती है। दिलचस्प बात है कि १९९० में उदारवादी – पूंजीवादी व्यवस्था को पुरजोर तरीके से अपनाने में जिस मनमोहन सिंह की ब़डी भूमिका थी, वो नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के पहले दस साल कांग्रेस की तरफ से नेतÀत्व करते रहे, किंतु इसके ठीक बाद जिस राहुल गांधी के पास नेतÀत्व आया वो समाजवाद का झंडा बुलंद करने की कोशिश करने लगे। चाहे संसद में नाम लेकर उद्योगपतियों की आलोचना करना हो या प्रधानमंत्री पर सूट बूट की सरकार होने का तंज कसना हो, राहुल गांधी खुलकर दूसरे खेमे में होने को दर्शाते रहे। वो भी तब जब राहुल जिस ‘युवा कांग्रेस” के सहारे पार्टी की सूरत बदलना चाह रहे थे, उनमें से अधिकांश समाजवादी प्राप्ति की मरीचिका से ऊबे हुए लगते थे। इसके विपरीत नरेन्द्र मोदी एकदम स्पष्ट नजर आए। इन्होंने जनकल्याणकारी राज्य की धारणा से डिगे बिना समाजवादी नीति से चिपके रहने के संकोच को त्याग दिया। नए समय के अनुकूल आर्थिक नीति जिसमें न्यूनतम शासन के साथ मुक्त अर्थव्यवस्था की ओर ब़ढते कदम, विदेशी निवेश के प्रति आकर्षण, विनिवेश, नागरिक उद्यमशीलता को प्रोत्साहित करने जैसी नीतियों के सहारे मोदी आगे ब़ढे। ये सभी परंपरागत समाजवादी नीति से स्पष्ट विचलन के संकेत हैं। वस्तुतः नरेन्द्र मोदी ने खुद को एक ऐसे नेता के रूप में प्रस्तुत किया जो अपनी धार्मिक पहचान को लेकर किसी दुविधा में नहीं था। कश्मीर को शेष राष्ट्र से जो़डने की कसम भी निभाई। न्यूजरूम से मंत्री बनाने का चलन खत्म किया, राजनीति को चंद अभिजनों के इशारे पर निर्देशित होने की परिपाटी मिटाई, देश को नई तकनीक के प्रति सहज होने का अभ्यास कराया, जन धन से लेकर उज्ज्वला तक तमाम ऐसे छोटे दिखने वाले ब़डे उपाय किए।

नेतÀत्व से आखिर हमारी क्या अपेक्षाएँ होती हैं? यही न कि वो कठिन समय में न केवल उचित निर्णय ले बल्कि दृ़ढतापूर्वक डटे रहने का कौशल भी दिखाए! उसकी भंगिमा सकारात्मक हो। उसकी भाषा संयत हो। उसको साथ ख़डा होना आता हो। जोखिम लेने की प्रकत्ति हो। जिसकी उपस्थिति उत्साहित करे और जो हार जीत को अपने बूते स्वीकार करने की क्षमता रखता हो। किसी संगठन का लीडर जितना कुशल, परिश्रमी और जोखिम उठाने वाला होता है वह संगठन भी उतना ही मजबूत हो जाता है। तमाम व्यावहारिक बातों के बावजूद नेतÀत्व का एक अदृश्य प्रभाव होता है। अच्छे लीडर इस प्रभाव को और सघन कर देते हैं। और इस कसौटी पर देखें तो नरेन्द्र मोदी एकदम खरे उतरते हैं। देश की केंद्रीय सत्ता पर काबिज होने की लगातार कोशिशों के बाद भी ज्यादातर बार असफल ही रहे संगठन को जीत के लिए तैयार करना कोई साधारण बात नहीं। भाजपा भी २००४ और २००९ के लोकसभा चुनावों में हार के बाद काफी कुछ ऐसी ही निराशा महसूस कर रही थी। ऐसे में नरेन्द्र मोदी ने संगठन को जीत के लिए तैयार किया और कार्यकर्ताओं को आत्मविश्वास से भर दिया। इतना ही नहीं उन्होंने हर बार जीत-हार की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली। चुनावी कोशिशों से अलग देखें तो उन्होंने राज्य के अन्य मूलभूत इकाइयों को भी राष्ट्रीय नेतÀत्व से जो़डा, चाहे वह इसरो का कोई अंतरिक्ष प्रयोग हो या फिर कोई सैन्य अभियान।

सन्नी कुमार

अभ्युदय वात्सल्यम डेस्क