क्योंकि ये कहानी है वादियों में रहने वाले हमारे ‘हम-वतनों’ की

केशव पटेल

हिन्दी साहित्य के उपन्यासों में ऐसे उपन्यास बेहद कम हैं जिनमें साहित्य को ऐतिहासिकता की प्रमाणिकता में परोसा गया हो। रिफ्यूजी कैंप एक ऐसा ही साहित्यिक दस्तावेज है जिसे उस हर भारतीय को पढऩा चाहिए जिसने कश्मीर की वादियों को समाचार-पत्रों की हेडलाइन्स या खबरिया चैनल्स की सुर्खियों के माध्यम से ही देखा, सुना और जाना हो। रिफ्यूजी कैंप सिर्फ अभिमन्यु की कहानी नहीं है, यह घाटी में रहने वाले उस हर शख्स की कहानी है जिसने कश्मीर की खूबसूरत वादियों में नफरत़ की धुंध को फैलते देखा है और इसे महज कहानी क्यों कहा जाए, रिफ्यूजी कैंप कश्मीर की बिखर और बिसर चुकी विरासत और संस्कृति से रूबरू कराता एक जीता -जागता दस्तावेज है। एक सांस्कृतिक विरासत का अनुभव रखने वाला व्यक्ति जब कोई साहित्य लिखता है तो वह सिर्फ साहित्य नहीं होता आने वाले इतिहास के लिए एक दस्तावेज भी होता है। आशीष कौल ने वही साबित किया है। रिफ्यूजी कैंप किसी टूटे दिल की दास्तां या दो बिछड़े दिलों की महज एक कहानी भर  नहीं है, यह जज्बातों का वो समंदर है जो अपनी विरासत, अपनी संस्कृति, अपनी सभ्यता और सबसे बढव़र अपनी माटी से बिछडऩे और उससे मिलने की तडप़ का सूनापन लिए किनारों से टकराता रहता है।

कोई भी व्यक्ति जब अपनी जन्मभूमि से कहीं और माइग्रेट करता है तो वो अपने साथ अपनी संस्कृति को विरासत के तौर पर ले जाता है, और इसे ही वह अपनी आने वाली पी़ढियों तक पहुंचाता भी है। लेकिन कश्मीर से जबरदस्ती विस्थापित कर दिए गये कश्मीरी पंडितों की संस्कृति तो वहीं रह गई, अपने ही देश में रिफ्यूजी कहलाने वाले इन हिन्दुस्तानियों के सामने अपने आनी वाली पी़ढियों को अपनी संस्कृति को विरासत के रूप में सौंपने का यक्ष प्रश्न कितना कंटीला रहा होगा इसे रिफ्यूजी कैंप पढव़र समझा जा  सकता है। ये वो लोग थे जिनके सिर्फ घर नहीं छूटे, पीछे छूट गया था किसी शहनाज की थाली में अभिमन्यु के लिए मुख्तार के हाथों से तोड़ी गई रोटी का टुकड़ा, किसी आरती की पूजा की थाली में मुख्तार के नाम का चंदन का टीका। ये वो लोग थे जिन्होंने  माजिद और इस्माइल चाचा की नमाज के लिए जमीनें साफ की थीं तो अभय प्रताप और दीनानाथ को पूजा से पहले उनके  मंदिरों की सीी़ढियाँ साफ मिली थी। ये वो दर्द है जिसे भरने  के लिए रोशनी को अंधेरे का सफर तय करना पड़ा, ये वो दर्द है जिसे गुनगुनाने के लिए जसप्रीत को कई रातें जागनी पड़ी

यह उस हर नौजवान की कहानी है जिसने केसर की खुशबू में गूंजती कश्मीर की घाटी  को वरवरोलिव,गोलिब या चेलिव के नारों में बदलते देखा, जिसने वादी के कई ख़ुशनुमा मौसमों को दहला देने वाली काली रातों में बर्फ की चादरों को लाल होते देखा। यह कहानी उस हर आदमी की जिसे वादियों ने अपने औलाद की तरह अपने दामन में समेट रखा था, यह दर्द है उस हर टूटे दिल का, जो अपनी सरजम़ी से निकलते ही औरों के लिए रजिस्टर में दर्ज महज एक आंकड़ा हो गया। यह कहानी है उस इस्लाम की जिसे पाकिस्तान में कहवे की गर्म चुस्कियों के साथ मौसिकी में पेश किया जाता है और वादी में बंदूक से निकलने वाली गोलियों की शक्ल में। ये कहानी है उस इस्लाम की जिसने जेहाद-अल-अकबर और जेहाद-अल-असगर के बीच का फर्क समझे बिना खुद को शरणार्थी में बदलकर एक लंबे और कभी ना खत्म होने वाले सफर में छोड़ दिया।  रिफ्यूजी कैंप सरकार के चेहरे पर एक करारा तमाचा भी है कि कैसे एक भारतीय अपने ही देश में रिफ्यूजी हो गया। उसके चेहरे से उसकी कश्मीरियत की पहचान मिटा दी गई, कैसे उसके आंखों के नीले-कत्थई रंग के रौनक की जगह, दहशत से भरे सूर्ख लाल रंग ने ले ली। ये कहानी है दर्द से उपजे उस हर गीत का जिसे गुनगुनाने का लहजा हम सबके दिल में कहीं टीस बनकर सिमट कर रह गया है, ये कहानी है, मेरी भी और आपकी भी, क्योंकि ये कहानी है वादियों में रहने वाले हमारे हम-वतनों की।

अभ्युदय वात्सल्यम डेस्क